________________
तो वीणा से मधुर आवाज़ निकलेगी। व्यक्ति ऐसा हो जो प्रिय भी लगे और अच्छा भी हो। ऐसा व्यक्ति क्या काम का जो प्रिय तो है लेकिन शराबी है, जुआरी है। ऐसा व्यक्ति त्याज्य होता है। श्रेय का भी ध्यान रखेंगे, तो गलत संगत से बच जाएंगे। प्रेय-श्रेय में संतुलन ज़रूरी है, ताकि जीवन का स्वाद और माधुर्य बना रहे। ____ यों तो हर चीज़ में प्रियता का संबंध जुड़ा रहता है। खाने-पीने में, देखने में, पहनने में, रिश्ते-नाते में - सबमें प्रियता का संबंध है। खाते हैं तो खाने में स्वादेन्द्रिय की प्रियता है। भोग में स्पर्शेन्द्रिय की प्रियता है। पुरुष किसी स्त्री को गले लगाता है, स्पर्श का सुख पाने की चाह होती है। भर्तृहरि कहते हैं - मांस के लोथड़ों को लोग सौन्दर्य की उपमा देते हैं। मुँह से किसी का चुम्बन क्या है, दूसरे की झूठी लार को अपने मुँह में लेना। वैरागी की भाषा तो यही है, लेकिन संसारी को इसमें प्रियता झलकती है। खाने का सुख, स्पर्श का सुख । मैं ऐसा नहीं कहता कि भोग करो ही मत। यह तो संभव है नहीं कि मेरे कहते ही सब लोग अपनी-अपनी पत्नियों को, अपने-अपने पतियों को छोड़ देंगे। ऐसा करना भी मत । मैं तो संतुलन की बात कह रहा हूँ। जीवन में पत्नी की ज़रूरत भी रहेगी और पति की भी, लेकिन संयम रखें। इससे संन्यास भी सध जाएगा और संसार भी।
संयम कई तरह के होते हैं - आहार-संयम, आचार-संयम, व्यवहार-संयम, वाणी-संयम, भोग-संयम । संयमी होना संपन्न होने से ज़्यादा कठिन है क्योंकि इसमें मन को जीतना होता है। तन पर विजय प्राप्त करनी होती है। असंयमित दोष हम सब लोगों के भीतर है। दोष होना सामान्य बात है, लेकिन दोषों से मुक्त होने का प्रयास करना हम सब लोगों का धर्म है। कीचड़ में पाँव का चले जाना कोई ग़लत नहीं है। लेकिन फिर उस कीचड़ को ही आत्मसात् कर लेना इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। अगर हम कीचड़ में ही उलझे रह जाते हैं, तो यह हमारी कमज़ोरी है। ___ व्यक्ति जीवन के बाल्यकाल और किशोर-अवस्था में तो ब्रह्मचर्य आश्रम को जी लेता है। बाद में जब शादी करता है, तो गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। प्रवेश करना बुरा नहीं है। लेकिन क्या गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने के बाद दूसरा कोई आश्रम नहीं रहता? 20-25 साल की उम्र तक हम लोग ब्रह्मचर्य-आश्रम को जीते हैं। बाद में जब गृहस्थ-आश्रम में क़दम रखते हैं, तो ऐसे डूब जाते हैं कि उससे निकलना याद ही नहीं आता। मरते दम तक गृहस्थी के रस-रंग में, मोह-माया में, भोग-विलास में उलझे रहते हैं। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कोई जीता ही नहीं है। बुढ़ापा आने पर जिस इंसान को निकल जाना चाहिए, भोगों से उपरत हो जाना चाहिए, वह उपरत होने की बजाय पहली पत्नी मर जाए, तो दूसरी के लिए अखबारों में वर-वधू के तलाश वाले विज्ञापन में अपने लिए तलाश करता रहता है कि शायद कोई गोटी फिट हो जाए। बूढ़ा चला है, जीवन की
122
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org