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________________ अंततः तो वह कीचड़ का स्थान ही है। उसे पवित्र कैसे कह सकते हैं। किसी के जन्म को पवित्र कार्य की उपमा कैसे दे सकते हैं ? जन्म तो ख़ुद ही अपवित्र स्थान से हुआ है। हमारे शरीर में अगर भोगों की तरंग उठती है, तो यह भोगों की आनुवंशिकता ही है । इसलिए भोग को किसी भी तरह से पवित्र काम तो नहीं कहा जा सकता। भोग रोग का मूल है। भोग नैसर्गिक है । प्राणी मात्र के साथ जुड़ी हुई यह प्रकृति है । देवताओं के भी पत्नियाँ होती हैं। स्वर्ग लोक भी भोग भूमि ही है । वहाँ पर भी मेनकाएँ और उवर्शियाँ रहती हैं। वहाँ पर भी इंद्र और इंद्राणियाँ हैं । तीर्थंकरों, बुद्धों और अवतारों ने भी कभीन-कभी तो दांपत्य-जीवन का स्वाद चखा ही है । यहाँ भोग से कोई विरोध नहीं है । पशु - जानवर भी उपभोग करते हैं। पर साल में केवल एक-दो दफ़ा। साल में वे एक-दो दफ़ा करते हैं, तब भी वे पशु और जानवर कहलाते हैं। मनुष्य की पशुता का मत पूछो। मनुष्य पशु से कई-कई गुणा ज्यादा उपभोग करता है । अगर यह बात सच है तो मनुष्य संगीन पशु है । पशु साल में एक-दो दफ़ा करता है इसलिए पशु कहलाता है। शायद मनुष्य वह होगा, जो जीवन में एक-दो-चार दफ़ा करता हो । नचिकेता तो संगीन साधक आत्मा है। उसका भोगों से क्या वास्ता ? यमराज ने नचिकेता को आम आदमी की तरह समझा होगा । सो झांसे में फँसाना चाहा। समझा होगा - यह भी आम आदमी की तरह बेईमान ही होगा, लोभी - लालची ही होगा । पर वह नचिकेता था । वह प्रलोभनों से नाचने वाला नहीं था । नचिकेता तो वह कहलाता है, जो अपने भीतर की मस्ती में नाच करता है । इसीलिए नचिकेता कहते हैं, भोगों से इंसान की तेजस्विता नष्ट होती है। योग का मतलब है मन को साधना, अंतर्मन को तपाना । भोगों के बारे में सुनकर कोई भी इनसे मुक्त नहीं हो पाता। ये तो स्थूलिभद्र जैसे लोग होते हैं, जो वेश्या के यहाँ जाकर भी निर्लिप्त रहते हैं। बाकी तो जो मनुष्य जन्मा है, वह शरीर की प्रकृति लेकर आया है 1 शरीर की प्रकृति स्वाभाविक तौर पर उदय हुआ ही करती है । ज्यों-ज्यों शरीर की प्रकृति, स्वभाव मनुष्य समझने लगेगा, उसे शरीर के प्रति विराग उत्पन्न होता चला गा । विद्या के प्रति हमारा मोह जागा, तो अविद्या के प्रति विरक्ति होती चली जाएगी। मनुष्य के शरीर में पाँच इन्द्रियाँ प्रमुख हैं। इनका उपयोग रूप को निहारने, खुशबू को सूंघने, स्वाद लेने, सुनने, स्पर्श करने में किया जाता है। हमें कोई चीज़ सुन्दर लगती है, तो हम उसे निहारते हैं । उसे देखने का सुख लेते हैं। सुन्दर स्त्री हमें अच्छी लगती है । अच्छा दृश्य हमारी आँखों को पसंद आता है। वातावरण में रहने वाली महक या किसी भी तरह की गंध को हम नाक से सूँघते हैं। कुछ भी खाते हैं, तो हमारी जिह्वा हमें उसका Jain Education International 115 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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