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________________ तुलसी। समाज ने उन्हें आचार्य-पद दिया। इस पद को उन्होंने वर्षों तक जीया। एक दिन ऐसा आया कि वे पद-मुक्त हो गए। अपना दायित्व किसी और को सौंपा। वे मुक्ति की तरफ बढ़ गए। ऐसे ही सनातन धर्म में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी हैं, जिन्होंने हरिद्वार में भारत माता मंदिर बनाया है। बड़े प्रसिद्ध संत हैं। पहले वे शंकराचार्य थे। हिन्दू धर्म में इससे बड़ा और कोई पद नहीं होता। इस पद पर वे काफ़ी साल तक रहे। एक समय आया जब उन्हें यह पद परिग्रह लगा होगा, भारभूत लगा होगा, सो छोड़ दिया। पहले शंकराचार्य लिखते थे, अब स्वामी लिखते हैं । मैं भी पहले पदों का उपयोग करता था। पद बढ़ते ही गए। एक दिन पदों की बोझिलता का एहसास हुआ। पहले इनकी सार्थकता समझ में आई, लेकिन बाद में इनकी व्यर्थता । सो एक दिन सारे पदों को छोड़ दिया। पदों के साथ व्यामोह समाया रहता है। दूसरा कोई हमारे साथ पद का उपयोग न करे तो आकुलता-व्याकुलता रहती है । क्यों न जड़ को ही काट दिया जाए? सनातन धर्म में एक बहुत अच्छे संत हुए हैं - स्वामी रामसुखदास जी। ऐसे विरले संत कम होते हैं। उन्होंने जीवन में कभी कोई पद लिया ही नहीं। किसी को अपना शिष्य बनाया ही नहीं। अपने नाम से कोई आश्रम, गौशाला, विद्यालय, अस्पताल कुछ भी नहीं बनाया। मरने से पहले यह वसियत लिख कर गए कि मरने के बाद भी उनके नाम पर कुछ भी न बनाया जाए। जो भी बनाया जाए, सब ठाकुरजी के नाम पर हो । यह त्याग है। कुछ लोग पहले कर देते हैं, कुछ लोग बाद में करते हैं, कुछ लोग कर ही नहीं पाते हैं। सब अपनी-अपनी समझ का परिणाम है । जो तृप्त हो गया वह मुक्त हो गया; जो अतृप्त है, वह उलझा हुआ है। दुनिया के मायाजाल में फँसा हुआ है। फिर चाहे वह संसारी हो या संन्यासी। हम आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ते खोलें। आखिर हम अपनी इच्छाओं का बोझ कब तक ढोते रहेंगे! एक ख़ास मुकाम हासिल न हो पाए, तब तक लगे रहें; फिर लौट चलें भीतर की ओर । यशस्वी जीवन स्थापित कर लिया, फिर निकल पडिए प्रभु के मार्ग पर । ऐसा कर लिया, तो मान लीजिएगा, आपने भारत के सच्चे स्वरूप को अपने भीतर जी लिया; अन्यथा भारत में पैदा तो हुए लेकिन उसे जिया नहीं। तो यह प्रलोभन का रास्ता है जिस पर अधिकांश फिसल जाया करते हैं। तृष्णा, इच्छा उलझाए रखती है। किसी इंसान की इच्छा होती है कि मैं इस लोक में पूरी प्रखरता प्राप्त करूँ और परलोक में भी मुझे किसी इन्द्र का सिंहासन मिल जाए। कुछ लोग जीने की इच्छा करते हैं, तो कुछ लोग मरने की इच्छा करते हैं। कुछ लोग लाभ की इच्छा करते हैं, तो कुछ यश-प्राप्ति की। कुछ विवाह कर आनन्द लेना चाहते हैं, लेकिन वहाँ भी नहीं रुकते। एक मिल गई, तो दूसरी चाहिए। दूसरी मिल गई तो तीसरी की चाह पैदा हो जाती है। 105 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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