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कुछ उसे डाल दिया, उसी में उसे संतुष्ट रहना पड़ता है। वे जैसा चाहें, उसे हड़काते हैं, लतियाते हैं और वह चुप रह जाता है। जब कोई इन्सान सत्तर वर्ष की आयु पूर्ण कर लेता है तो बंदर की तरह इधर से उधर, उधर से इधर, कभी बड़े बेटे के घर और कभी छोटे बेटे के घर रोटियाँ खाकर अपनी ज़िंदगी के दिन पूरे करता है।
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इस कहानी का नाम है - 'जीवन की कहानी'। यह एक काल्पनिक कहानी ज़रूर है, पर आप सभी इस कहानी की सच्चाई से वाक़िफ हैं। हम लोग कहीं-न-कहीं इस कहानी के पात्र ज़रूर हैं। हमारा जीवन ही हमारी पूंजी है । जीवन जीने की बेहतरीन कला और शैली सीखकर हम इस जीवन को परमात्मा का पुरस्कार बना सकते हैं। जो ठीक ढंग से जी पाते हैं उन्हें मरने के बाद किसी स्वर्ग को पाने की अभीप्सा नहीं रहती, उनका वर्तमान जीवन ही स्वर्ग हो जाता है। वे जहाँ जाते हैं और जहाँ रहते हैं, वहीं स्वर्ग उतर आता है। व्यक्ति के एक हाथ में करोड़ों की सम्पत्ति हो और दूसरे हाथ में ज़िंदगी हो तो उसमें ज़िंदगी ही मूल्यवान है क्योंकि जीवन के होने पर ही करोड़ों की सम्पत्ति का मूल्य है अन्यथा सम्पत्ति बेकार है। मार्क ट्वेन ने कहा -'मेरी पत्नी जहाँ रहती थी, वहीं मेरा स्वर्ग होता था । '
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इन्सान की बहुमूल्य दौलत है। जीवन है तो स्वास्थ्य का मूल्य है, धन और ज्ञान का मूल्य है । जीवन से ही चरित्र, रिश्ते और समाज का मूल्य है । अगर हाथ से जीवन छिटक जाए तो सारी चीज़ें निरर्थक हो जाती हैं । मार्क ट्वेन के लिए पत्नी ने कोई स्वर्ग बनाया नहीं था, अपितु उसका प्रेम, परिवार के लिए त्याग, सौहार्द ही स्वर्ग का निर्माण था । जिस परिवार में प्रेम हो, आनन्द हो, भाईचारा हो, त्याग की भावना हो, वहाँ सदा-सदा स्वर्ग ही बना रहता है ।
कहा
एक पादरी महोदय जो प्रोफेसर भी थे, बच्चों को बाइबिल पढ़ा रहे थे । उन्होंने अपने विद्यार्थियों से जब-जब मैं बाइबिल पढूँ और उसमें जहाँ-जहाँ स्वर्ग का उल्लेख आए, प्रभु का उल्लेख आए, तब-तब तुम लोग खूब मुस्कुराना और कहना 'यही है सत्य, हम इसे ही पाना चाहते हैं, धन्य है यह ।' छात्र यह सुनकर प्रसन्न हुए, परन्तु पूछा- 'सर, यह तो ठीक है, लेकिन जब नरक का उल्लेख आ जाए तब हम क्या करें ?' पादरी ने कहा- - 'जब नरक का उल्लेख आए तब कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। उन पंक्तियों से जितना जल्दी आगे निकला जा सके उतना ही बेहतर है क्योंकि नरक में तो हम जी ही रहे हैं ।
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LIFE
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नरक को बनाने के लिए प्रयत्न करने की ज़रूरत नहीं है, स्वर्ग बनाने के लिए पहल करने की ज़रूरत होती है। सच्चाई तो यह है कि इन्सान का जीवन तो कृषिभूमि की तरह होता है, जिसमें अगर अच्छे बीज बोए जाएँगे तो अच्छी फसलें उगेंगी, अन्यथा झाड़-झंखाड़ को तो उगने से रोका नहीं जा सकेगा। एक ओर तो हमें अच्छे बीज बोने होंगे तो दूसरी ओर जंगली घास, बबूल के काँटों को काटना, निकालना होगा। अपने जीवन में प्रेम और शांति, करुणा और आनन्द, प्रसन्नता और मैत्रीभाव के बीजों का रोपण करना होगा। हिंसा, क्रोध, ईर्ष्या, चिड़चिड़ेपन और नफ़रत के काँटों को जीवन के खेत-खलियानों से काटकर हटाना होगा।
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