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________________ तो 'शांतिचंद' से प्रेम कीजिए और यदि आप पुरुष हैं तो 'शांतिदेवी' से। मन की शांति ही जीवन की वास्तविक पत्नी है, बाकी तो केवल सामाजिक व्यवस्था या मानसिक कमज़ोरी है। जीवन को अगर शांति की दहलीज़ की तरफ बढ़ाना है तो हर हाल में शांति को मूल्य देना होगा, हमें शांति भरे शब्दों का इस्तेमाल करना होगा। शांति की कसौटी होती है विपरीत हालात। विपरीत हालातों पर विजय प्राप्त करने के लिए ही नियति और प्रकृति की व्यवस्था को स्वीकार करने पर जोर दूँगा। जब भी हानि का सामना करना पड़े तब-तब यही सोचिए कि जब-जो-जहाँ-जैसा होना होता है तब वो वहाँ वैसा होकर रहता है। जो होनी है उसको टाला नहीं जा सकता। जो अनहोनी है उसको होनी बनाया नहीं जा सकता। सुख भी, दुःख भी; विजय भी, पराजय भी; जन्म भी, मृत्यु भी; योग भी, वियोग भी; खिलना भी, मुरझाना भी; मिलना भी, बिछुड़ना भी - सब संयोग के अधीन हैं। दुनिया में कोई भी व्यक्ति दुःख नहीं चाहता फिर भी उसे दुःख मिलता है। हानि नहीं चाहता फिर भी हानि उठानी पड़ती है। कोई भी अपना अपमान या अपयश नहीं चाहता, पर इसके बावजूद हमें अपमान और अपयश झेलना पड़ता है। जो चीज़ हमारे न चाहने पर भी हो जाए तो समझ लेना कि वह होनी थी। होनी को अनहोनी न समझें। हर होनी के प्रति स्वागत-भाव रखें। यदि हम किसी भी होनी को अनहोनी समझेंगे तो हम तनाव और अवसाद के आगोश में चले जाएँगे। __ मैं तो कहूँगा जन्म को भी आप प्रकृति की एक व्यवस्था समझें और मृत्यु को भी। किसी का जन्म हो जाए तो भी सहज और किसी की मृत्यु हो जाए तो भी सहज । हानि को लेकर टेंसन मत पालिए और लाभ को लेकर अहम-भाव और राग-भाव का पोषण मत कीजिए। जो हर हाल में सहज और प्रसन्न रहता है वही अपनी चेतना में शांति को बनाए रखने में सफल होता है। लोग कबीर के साधुक्कड़ी अंदाज़ के फ़िदा हैं। आप भी समझिए इस अंदाज़ को। कहते हैं एक सौदागार के पास खूबसूरत दासी थी। एक बार उसे किसी दौरे पर बाहर जाना था, पर वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि वह अपनी दासी को किसके पास छोड़ कर जाए। आख़िर उसके एक मित्र ने उसे सलाह दी कि वह अपनी दासी को संत युसुफ़ के पास छोड़ जाए। जब वह संत युसुफ़ के पास पहुँचा तो उसे गाँव वालों से उसके बारे में ऐसी बातें सुनने को मिलीं, जो कि संत-जीवन की मर्यादा के ख़िलाफ़ थीं। इसलिए सौदागर वापस लौट आया। उसने अपने मित्र से संत के ख़िलाफ़ सुनी बातें बताईं, पर इसके बावजूद मित्र ने संत युसुफ़ की महानता और उसके पवित्र आचरण की तारीफ़ की। मज़बूर होकर वह फिर संत के पास पहुँचा, लोगों ने संत की निंदा करके फिर उसे बरगलाने की कोशिश की, पर इस बार वह मज़बूत मन के साथ संत की कुटिया में जा पहुँचा । संत ने उसे जो धर्मोपदेश दिया उससे वह बड़ा प्रभावित हुआ। उसने कहा, 'आपका ज्ञान और वैराग्य निश्चय ही विलक्षण है, पर मैं अभी तक.भी यह नहीं समझ पाया कि आप अपने पास यह बोतल और प्याला क्यों रखते हैं ? इनकी वज़ह से ही लोग आपको शराबी के रूप में बदनाम करते हैं।' ATED 51 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003860
Book TitleLife ho to Aisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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