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________________ तुम्हारी एक चौथाई उम्र बेकार ही गई।' थोड़ी देर बाद उसने फिर बाबा से पूछा कि क्या तुमने न्यायशास्त्र पढ़ा है ? इस बार भी उत्तर 'न' में मिला तो उसने हँसकर कहा, तब तो तुम्हारी आधी जिन्दगी बेकार चली गई।' नाविक चुपचाप नाव खेता रहा। उधर पंडित का अहंकार पुष्ट होता गया। कुछ देर बाद नए-नए पंडित बने युवक ने फिर बाबा को छेड़ा। उसने पूछा कि 'बाबा, क्या तुमने तर्कशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र पढ़ा है?' बाबा का उत्तर फिर भी 'न' में ही था। तब युवक बोला कि 'बाबा, आपकी पचहत्तर फीसदी जिन्दगी बेकार चली गई। एकाएक नदी का बहाव तेज हो गया। नाविक ने चाल चली। उसने नाव को एक तरफ झुका दिया और पंडित से पूछा 'क्या तुम तैरना जानते हो?' युवक ने जब 'नहीं' में उत्तर दिया तो बाबा ने कहा कि मेरी तीन चौथाई जिंदगी पानी में चली गई। मुझे विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, लेकिन तुम्हारी तो पूरी जिंदगी ही पानी में जाने वाली है। तुमने सब कुछ जाना, लेकिन तैरना नहीं सीखा। जो जीवन में तैरना जानता है, वह भव-सागर पार कर जाएगा और जो झूठा ज्ञान बघारने में लगा रहेगा, उसका ज्ञान उसे जमीन पर ले आएगा। सभी लोग इसी सांसारिक भूल-भुलैया में ही घूमते रहते हैं, अत: उन्हें मोक्ष का रास्ता नहीं मिलता। इसलिए तैरना सीखो, भुल-भुलैया से निकलना सीखो। धार्मिक बनना चाहते हो, आध्यात्मिक बनना चाहते हो तो पहले खुद को साम्प्रदायिकता के बंधनों से मुक्त करो अन्यथा जीवन भर अनुष्ठान करते रहोगे और यहीं रह जाओगे। जरा विचार कीजिये कि यह चोला (शरीर) क्यों मिला है आपको? इसका आपने अभी तक क्या उपयोग किया? इस पर विचार के बाद अपने भीतर रूपान्तरण की कड़ियाँ खिलने दीजिये। धर्म को कहीं एक जगह सीमित मत रखिये, उसे विस्तार करने दीजिये। आपके जीवन में इसी से संन्यास व समाधि घटित होगी। साम्प्रदायिक नहीं, धार्मिक और आध्यात्मिक बनिये। आत्मा को पहचानिये और उससे भी आगे बढ़े तो परमात्मा' से साक्षात्कार की संभावनाएँ आपकी राह देख रही होंगी। आज महावीर और बुद्ध, राम और कृष्ण भी हमसे पूछ रहे हैं कि तुम लोग मेरे अनुयायी होने का दम तो भरते हो, लेकिन मेरे वचनों को तुमने अपने जीवन में किस सीमा तक अंगीकार किया? मेरे संदेशों को जीवन में कितना उतारा? और उनके जवाब में हमारे पास सिवाय चुप्पी के और क्या है? कोई भी व्यक्ति साफ-साफ यह नहीं कह सकता कि मैंने परमात्मा की आज्ञाओं का पालन किया है । मैं परमात्मा के बताए मार्ग पर चल रहा हूँ। भले ही आप वेश के साधु न बन पाएँ, पर कम से कम जीवन के साधु बनने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। भगवा कपड़ों में तो साधु बनना आसान है, लेकिन पेंट-शर्ट में साधु बनना हरेक के बस की बात नहीं है। हिमालय की गुफा में बैठकर तो हर कोई ब्रह्मचारी बन सकता है, लेकिन हमारी चेतना सदैव उस स्थूलिभद्र के प्रति नतमस्तक रहेगी जो कोशा के यहाँ चातुर्मास व्यतीत करके भी निर्लिप्त रहे। मैं नहीं कहता कि आप गृहस्थी छोड़ दें और झोली-डंडा लेकर निकल पड़ें। यदि आप संसार में रहते हुए भी अपने को संसार से अलग कर लेते हैं, तो यह भी संसार में संन्यास की उपलब्धि होगी। ठीक कमल की तरह, जिसकी डंडी तो कीचड़ में रहती है, लेकिन उसके फूल बाहर खिलते हैं। संसार में रहना बुरा नहीं है, बस अपने को निर्लिप्त बनाये रखने की जरूरत है। 96 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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