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एकता और नैतिकता धर्म का मूल संदेश है । यदि हमने एकता को खो दिया, नैतिकता को खो दिया तो आने वाले समय में हमें अपने जीवन में जैनत्व और हिन्दुत्व की मोहर को भी खोना पड़ेगा। हमें यह मोहर सँभाल कर रखनी है। "हम नहीं दिगम्बर-श्वेताम्बर, तेरहपंथी स्थानकवासी, हम एक पंथ के अनुयायी, हम एक देव के विश्वासी।" हम कामना करते हैं कि हमारा आने वाला कल ऐसा हो जब हमारी पहचान दिगम्बर, श्वेताम्बर से नहीं, तेरहपंथी स्थानकवासी से नहीं हो, अपितु हमारी पहचान जैनत्व' के कारण हो।
किसी से उसका धर्म पूछो तो हरेक का जवाब अलग-अलग होगा। यही नहीं, यदि आप किसी साधु से पूछे तो वह भी अपनी घेराबंदी को नहीं तोड़ेगा, हमारा विचार भी इस घेरे में ही सिमट कर रह जाएगा। महावीर ने कहा कि अहिंसा, संयम और तप' में तीनों धर्म के महत्वपूर्ण सूत्र हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे पवित्रता के तीन प्रतीक गंगा, यमुना और सरस्वती हैं।
प्रभु कहते हैं कि जो व्यक्ति अहिंसा, संयम व तप का आचरण करते हैं, उसे देव भी प्रणाम करते हैं। लेकिन हमें प्रणाम तो दूर, कभी देव के दर्शन दूर से भी नहीं हुए। आखिर क्या बात है ? क्या हम धार्मिक नहीं हैं ? इस बारे में गहराई से सोचना पड़ेगा। अभी हमने धर्म का पहला पाठ पढ़ना भी शुरू नहीं किया है। हम तो इतना जानते हैं कि कैसे किसी की जेब काटें, कैसे मिलावट कर अधिकाधिक लाभ उठा लें। टैक्स बचाना भी जानते हैं और झूठ बोलना भी। दरअसल, हमने जीवन को झूठ का पिटारा समझ रखा है और उसी के अनुरूप अपने को ढाल लिया है। धर्म के बारे में हमारी जानकारी अधूरी है। एक बात का ध्यान रखें। जब तक हम धर्म को पूरी तरह नहीं समझ पाएँगे, तब तक हमारा सारा ज्ञान ऐसे ही होगा जैसे बिना नमक की सब्जी । आप सब्जी में सारे मसाले डाल दीजिये, लेकिन नमक छोड़ दीजिये पूरी सब्जी अस्वादु हो जाएगी। बिना धर्म के सब कुछ फीका-बेस्वाद है। हमने जीवन में प्रायः सभी कलाएं सीख लीं, मगर वे हमारे जीवन में अवतरित नहीं हो पायीं, क्योंकि हमारे प्रयासों में ही कमी रही। हमने बाहर की बातें तो बहुत सीख लीं, मगर हम भीतर का अज्ञान दूर नहीं कर पाए । बाहर के प्रति हमारा ममत्व है लेकिन हमें भीतर की चिंता नहीं है।
मनुष्य हर काम देह के कल्याण के लिए करता है। आत्मा के कल्याण की तो उसे सुध ही नहीं है। हम जड़ के कल्याण की चिंता में डूबे रहते हैं और चेतना को बिसरा देते हैं। जब तक आत्मा की सुध नहीं ली जाएगी, तब तक दुनिया की वास्तविक पहचान भी नहीं हो पाएगी। जो अपने आप को नहीं समझ पाया, वह दुनिया को क्या समझेगा? इसलिए धर्म को जीवन में उतारने की कोशिश करो और उसे किताबों तक ही सीमित मत रहने दो।
धर्म का सम्बन्ध बाहर से कम भीतर से अधिक है। जब तक यह बात समझ में नहीं आएगी, सब कुछ सीखा हुआ पानी में चला जाएगा। मुझे याद है, एक युवक ने बाहर वर्ष तक काशी में वेदों का अध्ययन किया। जब उसे लगा कि उसने काफी कुछ ज्ञान प्राप्त कर लिया है, तो वह अपने गाँव रवाना हुआ। राह में एक नदी पड़ी। उसने वहाँ खड़ी नाव का सहारा लिया। जब नाव रवाना हुई तो पंडित ने नाविक से पूछा-'बाबा! क्या तुमने व्याकरणशास्त्र पढ़ा है ?' अस्सी वर्षीय नाविक ने इनकार में सिर हिला दिया। पंडित ने कहा, 'तब तो
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