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लगाते हैं, मंदिर जाते हैं। खुद को हिन्दू धर्म और जैन धर्म का अनुयायी घोषित करते हैं, लेकिन उनके क्रियाकलापों का जायजा लें तो हैरानी होगी। ऐसे बहुत से लोग हैं जो भीतर कुछ हैं और बाहर कुछ। ऊपर से वे समाजसेवी बने फिरते हैं और घर में अपनी बहू को दहेज के लिए तंग करते हैं । दहेज के नाम पर अपनी पुत्रवधू को प्रताड़ित करना मानवता के लिए कलंक है। ऐसे लोग यह नहीं सोचते हैं कि उनकी पुत्री भी किसी की पुत्रवधू बनने वाली है। जो सास अपनी बहू को प्रताड़ित करती है, वह जरा सोचे कि उसकी बेटी भी तो किसी की बहू बनेगी और उसके साथ भी ऐसा ही अत्याचार हुआ, तो उसे कितना दर्द होगा? अगर धर्म की गहराई में जाओ तो आपको सोचने के कई बिन्दु नजर आएंगे।
भारत वह पुण्यभूमि है जहाँ धर्म ने अस्तित्व पाया। हमें इस बात पर गर्व करना चाहिए कि हमने इस भूमि पर जन्म लिया। इसी धरती पर राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध पैदा हुए। कितने-कितने ऋषि, आचार्य यहाँ पैदा हुए, जिन्होंने धर्म के आचार-विचार की पुण्य-सलिला बहाई। धर्म का अर्थ केवल सदाचार ही नहीं, सद्विचार भी है। जहाँ सदाचार व सद्विचार की गंगा-जमुना एक साथ बहती है, वहीं पर धर्म जीवित रहता है।
इस धरती पर कभी आइंस्टीन, सिकंदर और नेपोलियन पैदा नहीं हुए, लेकिन यह भूमि इस बात पर गर्व कर सकती है कि इसने राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि को पैदा किया। इस धरती ने उन लोगों को पैदा किया जो विश्व-विजेता भले ही न रहे हों, लेकिन आत्म-विजेता अवश्य रहे।
तलवार के बल पर किसी को जीतना अलग बात है और दिल के बल पर जीतना अलग बात है। तलवार से किसी का सिर काटा जा सकता है, लेकिन दिल से वास्तव में किसी को झुकाया जा सकता है। भारत वह धरती है, जिस पर जब-जब भी अधर्म बढ़ा, महापुरुष अवतरित हुए और उन्होंने अधर्म का नाश किया। आज दुःख होता है कि जिस देश ने दूसरे देशों को धर्म और अध्यात्म का संदेश दिया, वहाँ ही हिंसा, बेईमानी और भ्रष्टाचार ने अपने पैर जमा लिये हैं। ____ आज हमें चिंतन करना होगा कि हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए कैसा भारत छोड़ कर जा रहे हैं ? हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए धर्म का लहराता वृक्ष छोड़ा था, पल्लवित-पुष्पित सुमन छोड़े थे। आगे आने वाली पीढ़ी हमें गालियां देंगी, क्योंकि हम उसके लिए कोई अच्छा संसार छोड़कर नहीं जा रहे हैं। धर्म के नाम पर हम फूल नहीं, काँटे छोड़कर जा रहे हैं। कहने को तो हम सब एक हैं। साथ-साथ भोजन करते हैं, व्यवसाय करते हैं, लेकिन धर्म का नाम आते ही हम बँट जाते हैं । आपस में कट-मर जाते हैं। क्या धर्म हमें यही सिखाता है ? क्या धर्म-मजहब का यही काम है कि वह हमें काटे और आपस में बाँटे? अगर ऐसा होता है, तो वह धर्म नहीं अपितु कट्टरता है।
हमें विचार करना होगा कि क्या हम धर्म-मजहब के नाम पर इतने कट और बँट जाएँगे कि आपस में गलबहियां न डाल सकें, एक दूसरे के सुख-दुःख में काम न आ सकें। सारे संसार के प्रति मैत्री रखकर ही आप वास्तव में अपने साथ मैत्री कर सकते हैं।
हम साथ-साथ खाते-पीते और उठते-बैठते हैं, लेकिन धर्म का नाम लेते ही अलग-अलग हो जाते हैं।
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