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संसार में आज अनेक धर्म हैं और उनके भी कितने-कितने पंथ हो गए हैं। जितनी आबादी, उतने धर्म । महावीर से शिष्यों ने पूछा- 'कौन-सा धर्म श्रेष्ठ है ?' प्रभु ने यह नहीं कहा कि अमुक धर्म अच्छा है। उन्होंने कहा कि 'अहिंसा, संयम और तप, ये तीनों धर्म के प्राण हैं।' ये तीनों हमारे हाथ से निकल गए तो धर्म भी हमारे हाथ से निकल जाएगा। हमारे पास कुछ न रहेगा और हम खाली के खाली रह जाएंगे ।
धर्म का मतलब यह नहीं है कि समाज में जाकर नेतागिरी कर ली या वहाँ पदाधिकारी बन गए। अगर चित्त की निर्मलता नहीं है, तो तुम्हारा कल्याण नहीं हो पाएगा।
धर्म हिन्दु, बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन ।
धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन ।
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अन्तर की निर्मलता, चित्त की पवित्रता का नाम धर्म है। धर्म हमें उस अन्तर- शांति का अहसास कराता है। जो संसार में अनुपलब्ध है । उसका लक्ष्य मानवता का हित करना होता है । अहिंसा, संयम और तप - ये जो धर्म के प्राण हैं, उनका मूल उद्देश्य यही है कि हमसे मानवता का हित हो । अहिंसा का अर्थ विस्तारI और प्रेम है। संयम का अर्थ विस्तार - अशुभ से शुभ और शुद्धत्व की यात्रा है और तप इच्छाओं और कषायों का परिशमन करता है
करुणा
हिंसक मात्र वह नहीं है कि व्यक्ति कसाईखाने में बैठकर बकरे की हत्या करता है और अहिंसक वह नहीं है जो मंदिर में बैठकर पूजा करता है। हिंसा और अहिंसा की सिर्फ इतनी ही परिभाषा नहीं है। उनका अर्थ बहुत व्यापक है । लोग 'अहिंसा परमो धर्मः ' के नारे लगाते हैं। हम जरा आत्मचिंतन करें कि इन लोगों के पैरों में क्या है ? चमड़े के जूते । शरीर पर और देखो, तो हाथ की घड़ी का पट्टा, पेन्ट का बेल्ट, सब चमड़े के हैं । 'अहिंसा परमो धर्मः' का नारा लगाने वाली महिलाओं के हाथों में झूल रहा पर्स भी चमड़े का है। इनके होठों पर जो लिपस्टिक लगी है, वह कितनी हिंसक है यह क्या आप जानते हैं ? हम लोगों को विचारधाराएँ ऐसी हो गई हैं। कि वह भाषण तो लम्बे-चौडे झाड़ देंगे, लेकिन उन पर अमल नहीं करेंगे। हम नारे तो कुछ और लगाते हैं किन्तु अपने जीवन में कृत्य दूसरी तरह के करते हैं । ऊँचे सिद्धान्तों को मात्र भाषण तक सीमित रखने की बजाय हमें उन्हें जीवन में आत्मसात् करने का प्रयत्न करना चाहिये ।
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समाज के बीच बैठकर बातें तो ईमान की करेंगे, लेकिन बाहर जाकर इसके विपरीत कृत्य करेंगे। यही स्थिति धर्म की भी कर दी है हम लोगों ने। उसकी मूल भावनाएं तो बाहर निकाल दी हैं, किन्तु आडम्बरों से धर्म को घेर रखा है। जरा अपने को, धर्म को बाह्य आडम्बर से मुक्त करें। कहीं ऐसा न हो कि धर्म केवल बाह्य आडम्बर तक सीमित रह जाए, धर्म की मूल आत्मा आपके हाथ से खिसक जाए। जरा विचार कीजिये, वह आदमी भला कैसा धार्मिक होगा, जो मंदिर में जाकर तो पूजा-पाठ करता है और दूकान में बैठकर तस्करी, धोखाधड़ी से भरा धंधा करता है। एक आदमी समाज में जाकर तो एक हजार रुपये चढ़ा देता है लेकिन यदि उनके नौकर की बीबी बीमार हो जाए तो उसे सौ रुपये का सहयोग तक नहीं देता ।
दरअसल हमने अपने धर्म को पैसों से ही जोड़ रखा है। बड़े-बड़े धार्मिक लोग ऐसे हैं जो तिलक छापे
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