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हम एक गीत रोज गुनगुनाते हैं- 'मजहब नहीं सिखाता, आपस में वैर रखना' लेकिन काम उससे उलटा करते हैं। मजहब तो आजकल लोगों के मन में वैर की भावनाएं पैदा करने लगा है। हम लोग मजहब के नाम पर कटने-छंटने लगे हैं, क्योंकि हम वास्तव में धार्मिक नहीं बन पाए हैं। हम सब साम्प्रदायिक बनते जा रहे हैं।
धर्म को जब-जब सम्प्रदाय का चोला पहनाया जाएगा, तब-तब अध्यात्म नीचे गिरता जाएगा और सम्प्रदाय ऊपर उठता जाएगा। अलग-अलग पर्युषण करना जैन धर्म की बातें नहीं हैं । ये तो हमारे पंथ-परम्परा की बातें हैं। यह तो मनुष्य पर निर्भर है कि वह धार्मिक, आध्यात्मिक या साम्प्रदायिक में से क्या बनना चाहता है ? जिस देश ने कभी धर्म उत्पन्न किया, जो देश धर्म का प्राण था, आज वह अपने सामने बहुत बड़ा प्रश्न लेकर खड़ा है कि क्या हम धार्मिक हैं ?
हम लोग कब तक मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में खुद को बाँटते रहेंगे? जो लोग मंदिर-मस्जिद के पीछे मानवता का खून करते जा रहे हैं, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि मंदिर बने या मस्जिद। उन्हें तो अलगाव कराना है और इसमें वे सफल होते हैं। लेकिन धर्म को इन बातों से कोई सरोकार नहीं है। जब इस देश में मंदिर-मस्जिद नहीं थे, तब भी धर्म तो था ही और अब ये टूट जाएँगे तो भी धर्म रहेगा। धर्म कोई पत्थर-गारे से बनी इमारतों का मोहताज नहीं है।
धर्म का सम्बन्ध केवल मंदिर-मस्जिद के साथ नहीं है। धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के साथ है। यदि हमने धर्म का सम्बन्ध केवल जड-पदार्थों से जोडा और उसे हम भीतर से न जोड पाए तो धर्म बार-बार साम्प्रदायिकता का बाना पहनकर आपके सामने खड़ा होगा और अयोध्या जैसे कांड होते रहेंगे।
हमें साम्प्रदायिक नहीं, धार्मिक होना है, आध्यात्मिक होना है। हमारे आपसी झगड़े भी कम नहीं हैं। एक कहता है, 'सबसे पहले श्वेताम्बर का नाम रहना चाहिए।' दूसरा कहता है, 'दिगम्बर का नाम आगे रहे।' कोई 'स्थानक' और कोई 'तेरापंथी' को आगे लाना चाहता है। विडम्बना यह है कि कोई यह नहीं कहता कि सबसे पहले जैनत्व का नाम रहना चाहिए। हम स्वयं को साम्प्रदायिकता से ऊपर उठाएँ। धर्म कभी साम्प्रदायिकता में नहीं जीता। धर्म हमेशा आध्यात्मिकता में जीता है।
धर्म बाहर ही नहीं भीतर भी होना चाहिये। धर्म एक दूसरे से जोड़ना सिखाता है, बाँटना नहीं। जहाँ अलगावा अथवा बँटवारे की बात हो, वहाँ धर्म नहीं अपितु साम्प्रदायिकता है। धर्म का काम वैमनस्य फैलाना नहीं है। सबके प्रति मैत्री का भाव पैदा करना ही धर्म का उद्देश्य है। अब यह तो व्यक्ति पर निर्भर है कि वह क्या बनना चाहता है धार्मिक या साम्प्रदायिक? धर्म आचार-विचार दोनों का समन्वित रूप है। हम लोग जब माला जपते हैं तो कहते हैं, 'नमो लोए सव्वसाहूणं' जितने भी साधु हैं, उन सबको मेरा प्रणाम । लेकिन हम वास्तव में क्या इस वाक्य को जीवन में उतार पाते हैं ? ___ धर्म क्या है ? धर्म मानवता की मुंडेर पर मोहब्बत का चिराग है। धर्म अहिंसा का अनुष्ठान है। काश, हम अंहिसा के अनुष्ठान में जी पाएँ । उसे जीवन में आत्मसात् कर पाएँ । भारत के सैकड़ों धर्म हैं । कहने को तो मोटे तौर पर कोई एक दर्जन धर्म हैं लेकिन उनके भीतर इतने विभाजन हैं कि उनकी गिनती करनी मुश्किल हो जाए। हकीकत तो यह है कि धर्म तो कम किन्तु समुदाय अधिक पैदा हुए। कहने को हम भले ही शास्त्रों का उद्धरण
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