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________________ नदियाँ 'त्रिवेणी' बन जाती हैं, जब वे एक-दूजे में विलीन हो जाती हैं फिर आप नहीं बता सकते कि कौन-सा पानी किस नदी का है ? ऐसे ही धर्म भी तो संगम है जो सभी को अपने में विलीन कर एक स्वरूप बना देता है, लेकिन लोग किनारे खड़े रहते हैं क्योंकि संगम में उतरने से उन्हें डर लगता है। धर्म ऐसा संगम है जो हमें भाईचारे का संदेश देता है। प्रेम, शांति, शुद्धि और मुक्ति धर्म की मूल आत्मा है। यही कत्य है और यही फल है। धर्म तो एक-दसरे को गले लगाना सिखाता है। एक-दजे के काम आना सिखाता है। आपको वेदों में कहीं नहीं मिलेगा कि एक-दूजे के प्रति हम वैर-वैमनस्य का भाव फैलायें। आगमों और पिटकों में भी नहीं मिलेगा कि मंदिर और मस्जिद के नाम पर झगड़े करो। बाइबिल, कुरान और गीता में कहीं नहीं लिखा है कि धर्म के नाम पर कत्ले-आम करो। इसलिए आज जो धर्म हमारे सामने है, उसमें धर्म की मूल आत्मा गायब है। वह तो उस देह की तरह है, जो दिखने में तो देह ही है पर आत्म-तत्त्व उससे अलग हो गया है। भला शव में शिवत्व कैसे साकार हो पायेगा? शरीर में आत्मा है तो वह सजीव है, अन्यथा निर्जीव । शरीर मुर्दा है। धर्म आत्मा है, सम्प्रदाय शरीर है। आज हालात देखकर तो यों लगता है मानों आत्मा हमारे हाथ से छिटक गयी है और केवल शरीर ही बचा है। हम अगर साम्प्रदायिक कट्टरता को धर्म से निकाल दें तो बहुत कुछ फर्क पड़ सकता है, अन्यथा हम धर्म की मौलिकता को अंगीकार नहीं कर पाएँगे और हम सभी अपने सम्प्रदाय की मान्यतानुसार धर्म को मोड़ देते रहेंगे। एक मौलवी और एक पंडित में गहरी दोस्ती थी। दोनों अलग-अलग स्थानों पर रहते थे। प्रति सप्ताह एक-दूसरी को पत्र लिख ही दिया करते थे। एक बार मौलवी ने पंडित को पत्र लिखा कि 'मेरे गांव की मस्जिद पुरानी हो गई है। उसकी हालत जर्जर है, इसलिए मैं इसका जीर्णोद्धार करवाना चाहता हूँ। इसमें तुम भी मुझे मदद करो।अगर हो सके तो तुम एक हजार रुपए भेज दो।' __पंडित परेशान ! मस्जिद निर्माण के लिए पैसे दूँ तो मेरा धर्म कलंकित होता है। नहीं दूं तो दोस्ती टूटती है। वह काफी परेशान हो गया। कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उसने अपने वकील से सलाह-मशविरा किया। वकील ने उसे बहुत अच्छी राय दी। उसने कहा कि तुम अपने दोस्त को पत्र भेज दो कि 'मैं एक हजार रुपये भिजवा रहा हूँ, लेकिन इनका उपयोग मस्जिद के निर्माण में मत करना। मस्जिद के जीर्णोद्धार के लिए तुम्हें उसे पहले गिराना तो पड़ेगा ही। उस गिराने के काम में मेरे एक हजार रुपए का उपयोग कर लेना।' यह छल है, व्यक्ति का अपने खुद के साथ। वह दूसरों के धर्म के रचनात्मक कार्यों में सहयोग से पीछे हट जाता है। हम मंदिर-मस्जिद को गिराने की नहीं अपितु, प्रेम भाषा सीखें। हमारी सोच सृजनात्मक हो । तुम आगे नहीं बढ़ो, तो कोई बात नहीं किन्तु जो आगे बढ़ रहा है, उसके मार्ग में बाधक मत बनो। तुम्हारा पड़ौसी आगे तो बढ़ने दो। उसके पैरों में टंगड़ी क्यों मारते हो? मानवता के लिए यह प्रवंचना है। तुम धर्म करना चाहते हो, तो सबसे बड़ा धर्म यही है कि एक-दूसरे के काम आओ। प्यार-वात्सल्य, स्नेह बांटो। अगर किसी के विकास में तुम सहयोगी बनते हो, तो यह तुम्हारा सौभाग्य है। एक बात हमेशा याद रखें । यहाँ जो कुछ पाया है, सब माटी में समाने वाला है। तन, धन, यौवन सब कुछ 88 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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