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करें हम मानव का सम्मान ।
मानवता के मंदिर में हो, प्रेम का अमृत पान ॥ दुनिया है इक सुंदर बगिया, हर मज़हब इक डाली। सत्य, प्रेम के फूल खिले हैं, सबका एक ही माली । मानवता का पाठ पढ़ाते, सारे धर्म समान ॥ हर प्राणी है प्रभु की प्रतिमा, हर घर उसका मंदिर । मंदिर-मस्ज़िद-गिरजे सारे, उसकी पूजा के घर । हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई, सबका एक ही गान ॥ मानवता के सरवर पर हम ऐसा वृक्ष लगाएँ । छाया दे जो पथहारों को, सबकी प्यास बुझाए ।
भूखों को भोजन देकर ही, पूजें श्री भगवान ।
लोगों के मन में बार-बार विचार उठता है कि धर्म का सत्य आखिर क्या है ? एक व्यक्ति नग्न मूर्ति की पूजा करता है, दूसरा वस्त्र पहनी मूर्ति को पूजता है । कोई गणेश के मंदिर में जाता है तो कोई शिव के मंदिर में । कोई दरगाह में जाता है तो कोई यीशू के आगे जाकर आँखें बंद कर खड़ा हो जाता है। प्रश्न उठता है कि परमात्मा के पास कौन जाता है ?
दो पड़ौसी हैं। एक चींटी को बचाने को धर्म मानता है, तो दूसरा, बकरे की बलि देकर अपना धर्म जाहिर करता है। कौन धार्मिक हुआ ? उत्तर मिलेगा, चींटी को बचाने वाला। मगर दूसरा व्यक्ति कहेगा, 'मैंने धर्म के नाम पर बलि दी है।' इसमें इतनी असमंजसता है कि स्पष्ट अन्तर नहीं मिलता। दरअसल, धर्म अपने सिद्धान्त और मूल संस्कृति को खोता जा रहा है। धर्म के मूल सिद्धान्त पीछे छूटते जा रहे हैं। धर्म के नाम पर झगड़े होने लगे हैं। वास्तव में इन झगड़ों का धर्म से कोई लेना ही देना नहीं है। चींटी को बचाने वाला और बकरे को मारने वाला, दोनों ही 'खुद को धार्मिक कह रहे हैं ।
आखिर धर्म क्या है ? बार-बार यह प्रश्न उठता है। धर्म की परिभाषा पढ़ने और समझने लगो तो धर्म जीवन की निर्मलता है, धर्म जीवन की पवित्रता है, धर्म जीवन शांति लाता है, धर्म मानवता की मुंडेर पर जलता दीया है, वह मोहब्बत का चिराग है। जिस धर्म में ये सब गुण नहीं, वह धर्म नहीं, साम्प्रदायिकता का एक ऐसा खेमा बन जाता है, जिसमें से हिंसा और मारकाट ही निकलते हैं। धर्म वह नहीं है जो हमें एक-दूजे से अलग करता है। ये सब खेमे हैं। धर्म तो कभी अलग-थलग नहीं करता, वह तो हमें जोड़ता है। जो वास्तविक धर्म होता है, वह सदैव मनुष्य को आत्मौपम्य के भाव ही सिखाता है।
आप कभी प्रयाग गए होंगे। वहाँ तीन नदियों का संगम देखा होगा। अलग-अलग दिशाओं से आकर ये
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