________________
सर्वोदय हो धर्म का
विश्व में अध्यात्म और धार्मिक संस्कृति का सदैव महत्त्व रहा है। इस संस्कृति को आगे बढ़ाने, इसमें प्राण फूंकने हेतु समय-समय पर महापुरुष धरती पर अवतरित होते रहे हैं । इसलिए इस धरती पर कोई भी अध्यात्म का प्रवर्तक नहीं हो सकता, सभी अध्यात्म के दिव्य मार्ग के प्रेरक रहे हैं । अध्यात्म तब भी था, जब इस धरती पर राम और कृष्ण भी न थे। महावीर और बुद्ध भी न थे । इसलिए कोई यह कह भी नहीं सकता कि अध्यात्म का प्रवर्तक कौन है ? ये सब लोग अध्यात्म के उपदेष्टा जरूर रहे, पर इनके बाद के लोगों ने, इन्हीं के उपासकों ने धर्म-अध्यात्म को विभिन्न सम्प्रदायों का जामा पहनाया और मनुष्य को धार्मिक बनाने की बजाय अपने सम्प्रदाय की भीड़ बढ़ाने में उसका उपयोग करने की कोशिश की। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने धर्म और अध्यात्म को तो पीछे छोड़ दिया और उनके नाम पर अपने-अपने झंडे गाड़ दिये ।
इस धरती पर जितने भी आध्यात्मिक लोग हैं, जो पूजा, प्रार्थना, सामायिक और यज्ञ-हवन इत्यादि करते हैं, आवश्यक नहीं है कि वे सब धार्मिक ही हों। वे धर्म से, अपने जीवन से जितने जुड़े हैं, उससे अधिक साम्प्रदायिकता में बँधे हैं । मनुष्य के लिए सहज है कि वह संसार के कारागृह से मुक्त हो जाये, लेकिन इस मुक्ति के बाद भी क्या ऐसा नहीं होता है कि उसके हाथों में सम्प्रदाय तथा पंथ-परम्परा की बेड़ियाँ आकर उसे जकड़ लेती हैं । व्यक्ति प्रभुता को उपलब्ध करने के लिए आत्मनिर्णय की क्षमता नहीं रख पाता और 'प्रभुता' को पाने की बजाय सम्प्रदाय को फैलाने में रह जाता है ।
Jain Education International
84
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org