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है। पुत्र अपने पिता से मुक्त होना चाहता है। सभी एक दूसरे से दुःखी हैं, मगर छूटने के लिए वे प्रयास भी नहीं करते । दु:ख के दलदल में सभी जी रहे हैं पर मोहनीय कर्मोदय का प्रभाव यह है कि वे दुःख को ही सुख मान बैठे हैं । जिसे हम सुख कहते हैं, उसका समापन सदा दुःख में ही तो होता है।
इस जगत में सिवाय दुःख के और है ही क्या? जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु ये सब दुःख के ही कारण हैं । इनसे ही दुःख उत्पन्न होता है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक की पूरी यात्रा दुःख में चलती है। आदमी इससे छूट नहीं पाता। मकड़ी जाल बनाती है, औरों को फंसाने के लिए लेकिन वह खुद उसमें फँस कर रह जाती है। मनुष्य के साथ ऐसा ही हो रहा है।
कुत्ता जब हड्डी को चूसने लगता है तो कुछ समय बाद ही उसे हड्डी में से खून का स्वाद आने लगता है। वह समझता है कि हड्डी में से यह खून आ रहा है। उसे कौन समझाए कि यह उसका खुद का खून है ? मनुष्य की हालत भी ऐसी ही है। वह अपनी ऊर्जा समाप्त करता जाता है और ऊर्जा के समापन में ही वह सुखानुभूति करता रहता है। लेकिन उसकी समझ में यह नहीं आता कि ऊर्जा के इस अपव्यय को कैसे रोके? वह दुनियादारी में दौड़ता रहता है। और इसी भागम-भाग में उसकी मौत हो जाती है, उसके हाथ कुछ नहीं लगता। ___मनुष्य की ऊर्जा ऐसे कामों में समाप्त हो रही है, जिसका उसके जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। व्यक्ति हर रोज तय करता है कि अब से मैं अपनी ऊर्जा को सँभाल कर रखूगा, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाता। मन की कमजोरी, सांसारिक वस्तुओं के प्रति उसकी आसक्ति और सम्मोहन इतना गहरा है कि वह उनसे छूट ही नहीं पाता। आदमी घाव को खुजलाता है। पहले तो उसे इसमें आनन्द आता है, मगर धीरे-धीरे उस घाव से पीप निकलने लगती है, तब आदमी की आँखें खुलती हैं। अरे, मैं कैसे क्षणिक आनंद में मगन हो गया था, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है।
इस संसार के चक्र से छूटने की पहली शर्त यही है कि आदमी आसक्ति और सम्मोहन से अपने आपको मुक्त करे। वह 'मेरापन' को समाप्त करे, तभी आत्मतत्त्व के निकट पहुँचना संभव है। उसे 'मैं' को भी छोड़ना होगा। जब आदमी 'मैं' को समाप्त करेगा तो वह परमात्म-तत्त्व के निकट पहुँच सकेगा। परमात्म-तत्त्व तक पहुँचने में 'मैं' और 'मेरापन' बाधक है। जहाँ ये सब हैं. वहाँ आसक्ति और सम्मोहन भी डेरा जमात आसक्ति है, वहाँ आत्मा नहीं है और जहाँ अहम्' है, वहां परमात्मा नहीं है।
आसक्ति से मुक्ति या वैराग्य का सामान्यतया हम लोग 'विराग' अर्थ निकालते हैं। हमारे यहां राग का अर्थ है वस्तुओं को देख कर उन्हें पाने या मांगने की आकांक्षा का जन्मना । सुखद परिस्थिति सामने आये तो उसमें लीन होने के अन्तर्विचारों में जो भाव उत्पन्न होते हैं, उसी का नाम राग है। आत्मा का राग से गहराई में जाकर जुड़ जाना, इसे हम आसक्ति कह सकते हैं, सम्मोहन या मूर्छा कह सकते हैं।
राग-भाव जिसका परिणाम आसक्ति निकलता है, आत्मा को सर्वाधिक संसार में बाँधे रखता है। व्यक्ति 'पर' से जुड़ना चाहता है, स्वयं को खोकर किसी वस्तु में डूब जाना चाहता है। स्वयं से परे ही उसे सुख दिखाई देता है। उस पर' पदार्थ में दिखाई देने वाले सुख में डूब जाने की आकांक्षा का नाम ही राग है।
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