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________________ मुड़-मुड़ कर पीछे देखना शुरू कर दिया। काफी देर तक जब यही स्थिति रही तो फक़ीर ने सम्राट से पूछ लिया, 'सम्राट! आप बार-बार पीछे मुड़कर क्या देख रहे हैं ?' सम्राट ने कहा- 'फक़ीर साहब ! पीछे मुड़ कर न देखू तो क्या करूँ? मेरा सब कुछ पीछे ही है। मेरा राजमहल, मेरी रानियाँ, मेरी प्रजा, धन-वैभव सब कुछ पीछे ही तो है।' फक़ीर मुस्कुराया। फिर बोला, सम्राट, आपने मुझसे कुछ देर पहले पूछा था कि मुझमें और आप में क्या फर्क है ? यही फर्क है । मैं आपके महल में रहा, सोने के थाल में भोजन किया, विश्राम भी किया, मगर जब मैं महल से रवाना हो गया तो मैं अपना पहला कदम महल के बाहर रखते ही वह सब भूल गया, पर आप अभी तक महल, प्रजा और राजरानी के लिए पीछे मड-मड कर देख रहे हैं। मैं तो उसी क्षण राजमहल को भल गया, मगर तम्हारे भीतर अब भी राजमहल जीवित है। अब आपको पता लगा होगा कि आखिर आप में और मझ में क्या फर्क है? जो आसक्ति में डूबा है, वह संसारी है और जो अनासक्त हो चुका है, परीत संसारी हो गया, वही संन्यासी है। हम लोगों ने संन्यास का अर्थ मात्र वेश रूपांतरण से लगा लिया है। लोग कहते हैं कि संन्यासी वह है जिसने भगवा कपड़े पहन लिए, जो दिगम्बर हो गया, जो पहाड़ों में जाकर तपस्या करने बैठ गया।और संसारी वह है, जिसने विवाह किया, दुकान चलाता है, सांसारिक कर्म करता है। मगर यह विभाजन सौ फ़ीसदी ही नहीं है। यह तो ऊपरी तौर पर अंतर हुआ। वास्तव में गृहस्थ या संसारी वह है जिसके मन में अभी आसक्ति है, जो आसक्ति के लुभावने जाल में फंसा है। इसके विपरीत, फ़कीर वह है जिसने आसक्ति को, सम्मोहन को पीठ दिखा दी है। साधु वह है जिसके पाँव तो सारी दुनिया में घूम रहे हैं लेकिन उसका मन एक जगह टिका हुआ है। गृहस्थ वह है जिसके पाँव घर, परिवार में टिके हैं, मगर उसका मन पूरी दुनिया घूम आया है। फ़कीर वह है जिसका मन टिक गया है। उसका चित्त अब इधर-उधर नहीं भटकता। वह इन सबसे ऊपर उठ चुका है। भले ही पाँवों से वह भ्रमण करता रहे पर उसका चित्त भ्रममुक्त हो गया है। मन यदि चंचल रहा तो संन्यास सध न पाएगा। आदमी की समस्या है कि वह सांसारिक चीजों से ममत्व बढ़ाता जाता है और इसका परिणाम यह होता है कि उसके पाँव संसार रूपी कीचड में और अधिक धंसते चले जाते हैं। जैसे-जैसे हमारी आसक्ति बढ़ेगी, हमारी समस्याएँ भी बढ़ती जाएंगी और चित्त को चंचलता के नये-नये सम्पर्क-सूत्र मिलते रहेंगे। ___ बहिरात्मा की यही निशानी है। व्यक्ति अपनी आत्म-संवेदना को स्वीकार नहीं कर पाता । वह जड़ पदार्थ के प्रति इतना उलझ गया है, इतना सम्मोहित हो गया है कि उसे यह समझ में ही नहीं आता कि यह सब इस संसार में शाश्वत नहीं है। एक दिन तो उसे दूसरे लोक में जाना है। व्यक्ति ने अपने चारों ओर घर, परिवार, दुकान आदि का ऐसा सम्मोहन खड़ा कर लिया है कि अब उनसे छूटना उसे आसान नहीं लगता। आदमी परिवार से दु:खी होता है, तब भी उससे नहीं छूट पा रहा है । मैंने कहा, 'छूट नहीं पा रहा है,' पर हकीकत में तो वह छूटने का ईमानदारी से प्रयास ही नहीं कर रहा है। हमारे बंधन भी बड़े विचित्र हैं। पति अपनी पत्नी से मुक्ति चाहता 73 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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