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भला अँधेरे में जाकर प्रकाश को कैसे उपलब्ध कर पाऊँगा?' मेरे प्रभ! शरुआती दौर पर मिलने वाला यह अंधेरा ही तुम्हें प्रकाश की प्रतीति करा पायेगा। जितनी गहरी रात होगी, उतनी ही प्यारी सुबह होगी। और अंधेरा चाहे कितना गहरा हो, चिन्ता मत करना। अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता है। भले ही अंधेरा हजार साल पुराना हो किन्तु यदि अभी दीया जलाओ तो वह अभी मिट जायेगा। दिखने में अंधेरा भले ही भयानक हो लेकिन वह बड़ा निर्बल है। ज्योति छोटी भी क्यों न हो, पर वह बडी शक्तिशाली होती है। और उसमें भी भीतर की ज्योति, वास्तव में परमात्मा का अंश है। इसलिए दीया जला दो तो अंधेरा चला गया, दीया बुझा दो तो अंधेरा छा गया। जिस दिन हम भीतर के दीये की तलाश कर लेंगे, उस दिन हमारे अस्तित्व का सारा अँधेरा गायब हो जायेगा। तुम किसी दूसरे प्रकाश के सहारे नहीं चलोगे, अपितु स्वयं ही अपने लिए प्रकाशवाही बन जाओगे।
इसलिए स्वयं को जड़ और पुद्गल पदार्थ से उपरत करो। जिसे भेदज्ञान हो चुका है कि चेतना अलग है और देह अलग है, वह व्यक्ति ही अपनी चेतना के लिए दो कदम बढ़ा पायेगा।
जब तक व्यक्ति का देह से राग रहेगा, उसे मामूली सुई भी चुभन देगी, दर्द देगी और जब आदमी देह से ऊपर उठ जाएगा तो साध्वी विचक्षणश्री की तरह कैंसर का रोग भी उसे विचलित नहीं कर पाएगा। आदमी अगर देह से ऊपर उठ जाए और यह सोचे कि यह पीडा मझे नहीं. शरीर को. देह को हो रही है तो उसमें ऐसे भाव भी पैदा हो जाएँगे जिनसे आदमी को पीड़ा की अनुभूति नहीं होगी। बहुत से लोगों ने साध्वी विचक्षणश्री के दर्शन किए थे। उस साध्वी को कैंसर हो गया था। उनके शरीर से मवाद बहता रहता था। उस साध्वी ने जैसे कैंसर पर विजय प्राप्त कर ली थी। मैं उस साध्वी से नहीं मिला, मगर मेरी चेतना की जागृति में उसका बहुत बड़ा हाथ है।
व्यक्ति ने यदि जीते जी इस तत्त्व को पहचान लिया कि आत्मा अलग तत्त्व है और शरीर अलग तत्त्व है, चेतन अलग और पुद्गल अलग, तो वह आदमी जीवन में बहुत कुछ पा जाएगा। आदमी जीते जी अपनी आँखों से इस तत्त्व को निहार ले कि मैं अलग तत्त्व हूँ और शरीर अलग है तो उसे पीड़ा की अनुभूति नहीं होगी। उसकी आत्मा इससे प्रभावित नहीं होगी। मेरी दृष्टि में यही साधना है और यही साधना-फल है कि व्यक्ति देह में जीते हुए भी स्वयं को देहातीत कर चुका है। जिसे यह बोध हो गया है कि आत्मा शरीरव्यापी होते हुए भी अन्ततः शरीर से, चित्त, मन और विचारों से मुक्त है। वह मुक्ति का आनन्द पा रहा है। इसी का नाम ही तो मुक्ति है कि व्यक्ति संसार को ही समाधि का नंदनवन बना ले। देह में रहे, फिर भी देह से कुछ ऊपर।
आपके शरीर में यदि कोई फोड़ा हो जाए तो एक प्रयोग करके देखियेगा। आप चिंतन करियेगा कि यह फोड़ा शरीर का है, मेरा नहीं। ऐसा हुआ तो फिर आपकी पीड़ा स्वत: ही कम हो जाएगी। इसलिए मैं कहता हूँ आदमी अपनी अंतश्चेतना को जाग्रत कर, पहले तो यह सोच ले कि मैं अलग है और यह शरीर अलग है।
इस संकल्प का लाभ यह होगा कि व्यक्ति अपने भीतर प्रवेश कर पाएगा। अन्यथा जिन्दगी तो सुषुप्तावस्था में ही समाप्त हो रही है। संकल्प लिया जाए कि मैं अलग हूँ, शरीर अलग है। ईमानदारी तो यह है कि गहन आसक्ति के चलते व्यक्ति चलता-फिरता भी नींद में सोया हुआ है। नींद में तो वह अचेत रहता ही है। पूरी
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