SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परवाह नहीं है। समाज के लिए केवल व्यावहारिक धर्म ही धर्म बचा है। लोग कह देते हैं, 'अमुक साधु बिना कमली डाले बाहर निकल गया, अमुक साधु बिना डंडा लिये निकल गया या बिना मुंहपत्ती बोल गया या उसके उपाश्रय में टिफिन में भोजन आ गया।' मगर वे यह नहीं जानते कि कौन साधु है, जो अपने आप में सब कुछ प्राप्त कर चुका है। आत्मा में प्रवेश के लिए न तो दंड की जरूरत है और न ही भभूत की। लेकिन हमारी नजरें साधुत्व के केवल बाहरी रूप को ही देखती हैं। बाहर से सही सलामत नजर आने वाला आदमी ही हमें सर्वश्रेष्ठ लगता है। भीतर भले ही उसमें कल्मष भरा हो। ध्यान रखिये, आदमी जब तक बाहर और भीतर से एकरूप नहीं होगा, वह आत्म-चेतना को उपलब्ध नहीं कर पाएगा। ऐसे आत्मस्थ व्यक्ति को भले ही दुनिया में पागल समझा जाये, पर इस दुनिया में 'पागल' ही कुछ पा सकता है। लोगों ने तो महावीर और बुद्ध को भी पागल समझा। उनके पीछे कुत्ते छोड़े, कानों में कीलें ठोक दीं। महावीर ने वस्त्र त्याग दिये और वे नग्न रहने लगे। उन्होंने दुनियादारी निभाना छोड़ दिया। उनका मानना था कि दनिया के पश-पक्षी बिना कपड़ों के अपना काम चला सकते हैं. तो वे बिना कपडे क्यों नहीं रह सकते? यही सोचकर वे कपडे त्याग चके थे और एक तरह से प्रकति से अपना तादात्म्य कायम कर चके थे। मगर दनिया ने उस आत्मयोगी के व्यवहार को पागलपन ही समझा। इसलिए मैं कहता हूँ कि मात्र बाह्य आचारव्यवहार पर ही जोर मत दो। जो चीज जहाँ खोई है, उसे वहीं ढूँढो। दूसरी जगह वह नहीं मिलेगी। मृग कस्तूरी की खोज में इधर-उधर घूमता है, लेकिन वह यह नहीं जानता कि कस्तूरी तो उसकी नाभि में ही है। मनुष्य का भी यही हाल है। जिस चीज को वह बाहर तलाश रहा है, वह उसके स्वयं के भीतर है। यमुना को कौन समझाये कि कृष्ण की जो बंशी बज रही है, उसकी तान उसकी खुद की लहरों से ही निकल रही है। यमुना खुद बांसुरी की धुन सुनने को तरस रही है, लेकिन अपने भीतर की लहरों से उदासीन है। ओ रम्भाती नदियाँ, बेसुध कहाँ भागी जा रही हो? बंशीरव तो स्वत: ही तुम्हारे भीतर है। आत्मतत्त्व या परमात्मतत्त्व की तलाश भले ही सारे ब्रह्माण्ड में कर आओ, लेकिन वह वहाँ भी तब ही मिलेगा, जब हमारा व्यक्तित्व अन्तर्मुखी बन जाये। बिना मूल के छाया कैसे मिलेगी? मूल का तो पता ही नहीं और छाया को पकड़ने चले। एक होती है गा-गाकर परमात्मा को पाने वाली कोशिश, दूसरी होती है परमात्मा को पाने के बाद अन्तर से निकलने वाली भक्ति अथवा भक्ति से सने गीत । अगर परमात्मा को पा लिया तो गाने के लिए कोशिश न करनी पड़ेगी, कहीं शांत-एकांत की तलाश भी नहीं करनी पड़ेगी, अपितु वह भीतर से ही निपजेगा। भीतर की अलमस्ती से सब कुछ होगा। अगर मात्र गाने भर से परमात्मा मिल जाता, तो अब तक पता नहीं वह कितनी दफा रफी को, लता मंगेशकर को, अनुराधा को मिल गया होता। इन्हें नाम मिल सकता है, इनाम मिल सकता है, पर परमात्मा नहीं। इनके गीत कंठ तक हैं इसलिए वे कोकिलकंठी कहला सकती हैं। लेकिन परमात्मा क्या 66 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy