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________________ जाकर छोड़ेगी? जब तक हमारा समाज त्याग और निर्ग्रन्थ के प्रतीक इन सन्तों-मुनियों को पैसा छापने की मशीन मानकर चलेगा, तब तक महावीर का वास्तविक त्याग सच्चा त्याग नहीं होगा अपितु वह त्याग के नाम पर भी वैभव-प्रदर्शन में ही सिमटा रहेगा। निश्चित रूप से महावीर महाप्रतीक हैं आत्मसाधना के, पर आज वह प्रतीक कितना सुरक्षित बचा है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। आज हमने साधुत्व का सम्बन्ध मात्र वेश या बाह्य आचार-व्यवहार से ही जोड़ लिया है। अभी कुछ दिन पहले एक सज्जन कह रहे थे, 'साहब! अमुक महाराज के क्या कहने? बड़े व्यवहार-निपुण हैं । कई करोड़पति उनके पीछे चलते हैं। अभी उन्होंने अमुक शहर में प्रतिष्ठा करवाई, जिसमें ९-१० करोड़ की आमदनी हुई। मैंने कहा, 'भैया ये करोड़पति अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने के चक्कर में इन त्यागी-तपस्वियों को रोड़पति बनाकर छोड़ेंगे।' आज जिस समाज में मुनित्व की महानता मात्र पैसे की आमदनी से ही आंकी जाने लगी है, उस समाज का भविष्य अंधकारमय है । यह अपरिग्रह-धर्म पर कुठाराघात है। ___ निर्ग्रन्थ-परम्परा का मूल आत्म-अनुसंधान है, अन्तर्-ग्रन्थियों से मुक्ति है। और अगर इसमें चूक हो रही है, तो खेदजनक है। चौबीस घंटे में अगर एक मिनट भी आत्म-साधना को समर्पित न कर पाये, तो चौबीस घंटे ही बेकार गये। कल एक व्यक्ति, जिन्हें स्वाध्याय में काफी रस है, कह रहे थे कि मैं अमुक आचार्य महाराज के पास अपने कुछ प्रश्नों का समाधान करने गया। मैं आचार्यजी से तो नहीं मिल पाया। हाँ, उनके शिष्य ने बताया कि वे अभी आराम कर रहे हैं अत: नहीं मिल पायेंगे। इतने में नगर के कोई दो-तीन धनपति आये। शिष्य ने उन्हें आचार्यजी तक पहुँचाया। वे करीब दो घंटे बात करते रहे । मैं भी तब तक वहीं बाहर बैठा रहा। जब वे धनपति चले गये तो मैंने आचार्य से बात करनी चाही, पर जवाब मिला 'उन्हें कहीं बाहर जाना है इसलिए बैठ नहीं पायेंगे।' यह काफी आश्चर्य की बात है कि एक धनपति के लिए दो घंटे दिये जा सकते हैं पर एक आत्मार्थी को दो मिनट भी नहीं! और यही कारण है कि हमारे समाज में हजारों साधु-साध्वी होंगे पर उनमें कितने ऐसे हैं जिनमें आनन्दघन या राजचंद्र जैसी आभा हो। आखिर परमार्थ--संयम से शून्य मात्र व्यवहार-संयम कितना कामयाब हो पायेगा-हमारी आत्म-प्रगति में ? आज अगर आनंदघन जैसा योगी श्मशान-भूमि में साधना कर रहा हो और तुम कदाचित् उनके दर्शन करने पहुँच गये तो तुम्हें उस साधक की चैतन्य आभा दिखाई नहीं देगी। तुम तो यही कहोगे कि उनके सिर पर कमली तो है ही नहीं। तुम्हें साधना की बजाय कमली दिखाई दी। मात्र व्यवहार-संयम! मुनित्व का सीधा-सा सम्बन्ध आत्म-रूपांतरण से है। बाहर का वेश रूपांतरित हो गया पर अगर 'भीतर' रूपांतरित न हुआ तो केवल बाहर के रूपांतरण से क्या लाभ होगा? मैं व्यावहारिकताओं का विरोध नहीं करता। परमार्थ संयम को उपलब्ध करने में वे सहायक अवश्य हैं, पर कोरी व्यावहारिकता किस काम की? और मुसीबत तो यह है कि साधु भी आखिर क्या करे ? समाज में निश्चय ही कुछ भी कमी होगी तो चलेगी, पर व्यावहारिकता में कमी सहन नहीं होगी और अंगुलियाँ उठनी शुरू हो जायेंगी। और अंगुली भी ऐसे निरर्थक विषयों उठेगी पर जिनमें कोई तुक नहीं है। मूल धर्म में कितना ह्रास या विकास हो रहा है, इसकी किसी को 65 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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