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________________ कभी, कंठ में उतरता है ? वह तो हृदय में उतरता है। उस हृदय में जिसमें हृदयेश्वर के प्रति गहरी प्यास है। राजघराने की महिला मीरा गलियों में नाची, मन्दिरों में नाची। सारा राज परिवार, बन्धु, परिजन सब चिन्तित हुए। परमात्मा को पाने चली मीरा को उसके परिवार के लोगों ने ही कलंकित कर दिया। खुद सास ने ही उसे 'कुलनाशी' कह दिया। मन्दिर में नृत्य कर रही मीरा को राणा की ओर से जहर का प्याला भेज दिया गया। मीरा उसे भी प्रेम से पी गई किन्तु मरी नहीं । मीरा हो तो मरे ! वहाँ तो मीरा के भीतर भी कृष्ण ही प्रकट हो चुके थे। देह मीरा की नाच रही थी, पर चेतना, वह तो कृष्ण की हो चुकी थी। और परमात्मा भला क्या कभी जहर से मर सकता है ? उस परम तत्त्व की स्वयं में तलाश करो। छाया को पकड़ने के बजाय मूल को ढूँढो। स्वयं को पकड़ने से छाया पकड़ में आ जाती है। मूल को पकड़ा तो छाया स्वतः पकड़ में आ गई। इसलिए दुनिया को पकड़ने की कोशिश मत करना, स्वयं को पकड़ना। निज की भी 'जिन' में तलाश करनी होगी और 'जिन' की भी निज में तलाश करनी होगी। अगर स्वयं को न जाना और सारी दुनिया को जान लिया तो उससे क्या हुआ? ओर स्वयं को जान लिया और दुनिया को न जान पाये तो चिन्ता काहे की? आखिर, वह तुम्हारे भीतर है, और भीतर के भगवान को जानने के बाद कछ भी शेष नहीं रह जाता है। इस सन्दर्भ में जीसस का वचन सौ फीसदी सही है कि 'परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है।' परमात्म-तत्त्व तो आदमी के भीतर है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व को पूरी तरह तलाश नहीं कर पाएगा. तब तक वह स्वयं को उपलब्ध कैसे होगा? हमने अभी तक परमात्मा को बाहर से निहारा है. इसलिए हमें बाह्य तत्त्व ही दिखाई देते हैं। भीतर की आँखों से निहारने पर ही भीतर के दर्शन होंगे। इस भीतर देखने की नजर को महावीर 'सम्यक् दृष्टि' कहते हैं, बुद्ध इसी को 'सम्यक् प्रज्ञा' कहते हैं अर्थात् प्रज्ञा के नेत्रों का उद्घाटन। आदमी जब अन्तर्-नयनों से, प्रज्ञा के नेत्रों से अपने भीतर के अस्तित्व को पहचानना शुरू करता है, तभी से उसमें संन्यास घटित होना शुरू हो जाता है । तभी तो आनन्दघन ने कहा था 'आत्म ज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्य लिंगी रे।' वे कहते हैं, 'श्रमण कौन है?' वे यह नहीं मानते कि श्रमण वह है, जो किसी मंदिर, किसी उपाश्रय या किसी स्थानक में जाकर टिक गया है या जिसने वेश-परिवर्तन कर लिया है। उनकी नजर में श्रमण वह है, जिसने आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया, जिसने जड़ व चेतन के भेद को प्रकट कर समझ लिया। श्रमण वही है जो आत्म-ज्ञानी हो गया। हो सकता है कि आनन्दघन ने समाज की बहुत-सी मर्यादाओं को लांघा हो। क्योंकि समाज की मर्यादाएँ समय-सापेक्ष होती हैं। उन मर्यादाओं का आत्म-ज्ञान से कोई ताल्लुकात नहीं है। जब तक सारे बन्धन भले ही वे मर्यादा के बन्धन ही क्यों न हों, न टूटेंगे तब तक आत्म-चेतना में प्रवेश कैसे होगा? बन्धन-मुक्ति कैसे होगी? और आनन्दघन तो जैन समाज का वह फकीर है जिसे मैं कोहिनूर हीरे की संज्ञा दूंगा, बेदाग, चमकता हीरा। जिसने समाज द्वारा थोपे गये बन्धनों से स्वयं को मुक्त किया और आत्म-ज्ञान की ओर अपने कदम बढ़ाये। 67 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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