SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोला-'मुझे पिछले कुछ दिनों से लगातार एक स्वप्न आ रहा है कि इस खंभे के नीचे अपार धन गड़ा है। मुझे स्वप्न की सच्चाई का पता लगाना है।' सैनिक पहले तो हँसा, फिर उसने कहा- 'हम दोनों एक ही नाव के सवार हैं । मुझे भी पिछले कई दिनों से एक स्वप्न आ रहा है कि यहां से छः किलोमीटर दूर एक फकीर की कुटिया है। कुटिया में फकीर की चारपाई के नीचे बहुत सा धन गड़ा है।' सैनिक की बात सुनकर उस फकीर को जैसे आत्म-बोध हो गया। वह कुछ न बोला और अपनी कुटिया की ओर लौट गया यह सोचकर कि जिसकी तलाश में मैं यहाँ तक आया, वह तो वहीं है, जहाँ से मैं रवाना हुआ था। हमारे साथ यही हो रहा है। हम जिस सम्पदा को संसार में ढूँढ रहे हैं, वह हमारे स्वयं के भीतर ही है। तुम जहाँ हो, तुम्हारी सम्पदा वहीं है। आखिर तुम्हारी सम्पदा तुम्हारे ही पास है। लेकिन हमारे लिए दुर्भाग्य की बात यही है कि हम लोग अपनी आत्म-सम्पदा की तलाश दुनिया में करते हैं। मेरी नजर में सम्पूर्ण सृष्टि में सर्वाधिक मूल्यवान हमारा चेतन तत्त्व है परन्तु पदार्थों के संयोग से इसकी विकृति सृष्टि का विनाश है और इसकी संस्कृति सृष्टि का विकास है। आत्मा के अभाव में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपने आप में प्रश्नचिह्न है। भला बिना विद्युत् के मशीनों की क्या उपयोगिता? चेतना है तो सब कुछ है; और चेतना के अभाव में न मनुष्य है, न पशु-पक्षी, न कीट-पतंगे हैं और न ही वृक्ष-पर्वत-नदियाँ, कुछ भी नहीं। ब्रह्माण्ड का अस्तित्व ही चेतना के सहारे टिका है। साधना के मार्ग में आत्म-सम्पदा ही सर्वाधिक मूल्यवान है । जो स्वयं को नहीं पहचान पाया, अपने भीतर के रहस्य की तलाश न कर पाया, भला उसने सब कुछ पाकर भी क्या पाया? जैसे- बिना स्वर और व्यंजन के बोध के भाषा का बोध नहीं हो सकता वैसे ही बिना आत्म-प्रतीति किये साधना के मार्ग में क्या कोई आज तक बढ़ पाया है ? मनुष्य-जाति युगों-युगों से दो धाराओं में बहती आई है- एक मनुष्य-चेतना की बहिर्मुखी धारा और दूसरी अन्तर्मुखी धारा। बहिर्मुखी धारा संसार है और अन्तर्मुखी धारा साधना। जब तक हमारा व्यक्तित्व अन्तर्मुखी नहीं हो जाता है तब तक साधना अधूरी मानी जायेगी। भले ही वेश का रूपान्तरण हो गया, दीक्षा के नाम पर बदल गया, घर बदल गया, रहने-जीने के तौर-तरीके बदल गये, व्रत तपस्याएँ भी कर ली गईं, पर हम भीतर को न पहचान पाये, भीतर के भगवान के दर्शन न कर पाये, तो यह सब कुछ व्यवहार संयम भले ही हो जाये, परन्तु परमार्थ संयम शायद नहीं होंगे। अगर अन्तर की तलाश की प्यास न जगी तो बाहर के क्रिया-काण्ड क्या परम सत्ता को उपलब्ध करा पायेंगे? मैं यह नहीं कहता कि जीवन की व्यावहारिकता का शुद्धिकरण न हो । वह तो होना ही चाहिये, पर मात्र लोक-प्रतिष्ठा के लिए व्यावहारिक धर्मों को निभाना और अन्तर में जागरूकता की कोई दस्तक भी न दे पाना शायद साधना के मार्ग में उचित नहीं कहा जा सकता। भले ही वेश रूपान्तरण के कारण कहने भर को तुम्हारा गुणस्थान बढ़ गया हो, पर यदि भीतर से सम्यकत्व का उपार्जन नहीं कर पाये, तो मेरे प्रभु! गुणस्थान में बढ़ोतरी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy