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वेश नहीं करवाता अपितु चेतना के शुभ परिणाम करवाते हैं। एक साधु भी अगर बहिर्मुखी धारा से जुड़ा है तो वह सब कुछ करते हुए भी चेतना के स्तर का स्पर्श नहीं कर पायेगा। वह एक पाँव पर खड़ा होकर बारह वर्ष तक साधना कर लेगा, वृक्ष पर उल्टा लटक कर भी साधना कर लेगा, भभूत भी रमा लेगा, सफेद-पीले-नीले कपड़े भी बदल लेगा, लेकिन बिना सम्यक् दर्शन के, बिना चेतना के रूपान्तरण के वह भव-भव भटकता ही रहेगा।
आदर्यु आचरण लोक उपचार थी, शास्त्र अभ्यास पण कांई कीधो।
शुद्ध श्रद्धा न वली आत्म अवलंब विनुं, तेहवो कार्य तेणे को न सीधो॥ उपाध्याय देवचन्द्र ने यह बात बड़ी गहरी कही। कुंदकुंद, आनंदघन, देवचन्द्र जैसे स्पष्ट वक्ता जैनों में बहुत कम हुए हैं। आदर्यु आचरण लोक उपचार थी;' लोकव्यवहार में कहने भर को संयम का आचरण किया, शास्त्रों का पठन-पाठन भी कर लिया, लेकिन इतना सब कुछ करके भी अगर आत्म-रूपांतरण न हो पाया,
आत्म-अवलम्बन नहीं पाया, तो भला क्या कर पाये? देवचन्द्र का यह वचन उन सब लोगों के लिए टीस भरी सिखावन है, जो मात्र व्यवहार में जीकर न केवल औरों को अपितु स्वयं को भी भ्रमित करते हैं। ___ अगर मुनित्व के बाने में जीने वाला व्यक्ति भी बहिर्मुखी धारा में जी रहा है, तो संसार से वस्तुतः उसका अलगाव कहाँ हुआ है ? बहिर्मुखी धारा में तो सारा संसार बह रहा है, पूरी दुनिया बह रही है, भीड़ मिलेगी इस मार्ग पर । पर मेरे प्रभु! अन्तर्मुखी धारा में तो गिने-चुने लोग ही मिलेंगे। लाखों में एक ऐसा साधक मिलेगा, जो बहिरात्मपन से अन्तरात्मा में प्रवेश कर चुका हो । वही तो संसार में शिखर पुरुष होता है । इस सृष्टि में पता नहीं, अब तक कितने खरबों-खरब-असंख्य इंसान हुए हैं, लेकिन बहुत थोड़ी संख्या में ऐसे लोग हुए हैं जो अपनी चेतना को उपलब्ध होकर सम्बुद्ध हो गये हों। राम-कृष्ण, महावीर-बुद्ध, ईसा-सुकरात जैसे महापुरुषों की सूची बनाना चाहो तो यह संख्या सैकड़ों-हजारों में ही सिमट कर रह जायेगी, लेकिन ऐश-आराम और सुखवैभव में जीने वाले अनगिनत लोग मिल जायेंगे।
बहिर्मुखी धारा संसार है और अन्तर्मुखी धारा साधना। सिकंदर संसार का प्रतीक है और महावीर साधना के प्रतीक हैं। सिकन्दर के मार्ग में भीड़ मिल जायेगी, पर महावीर का मार्ग ऐसा है जिसमें न भीड़ है और न भेड़ें।
मेरे प्रभु! अन्तर के साम्राज्य पर वही व्यक्ति आधिपत्य कर पायेगा, जिसने अपनी ऊर्जा को अन्तर्नियोजित करने के लिए दृढ़ संकल्प कर लिया है। जब तक ऊर्जा अन्तर्नियोजित नहीं होती है, तब तक ऊर्जा का सिवाय अपव्यय के और कुछ नहीं हो सकता। मनुष्य ऊर्जा का स्वामी है और यदि ऊर्जा उससे च्युत होती है तो स्वामित्व भी खो जाता है।
आवश्यकता है कि हम अपनी ऊर्जा, आत्म-सम्पदा की पहचान करें। कहीं ऐसा न हो कि हमारे भीतर अपार खजाना छिपा हो और हम बाहर से भिखारी बने घूम रहे हों। हम मात्र पुजारी ही नहीं हैं। अगर हमारी आत्म-चेतना जागृत हो जाये तो पुजारी ही पूज्य बन जाता है। महावीर का उपासक होना अलग बात है और स्वयं में छिपे हुए महावीरत्व को पहचानना अलग बात है।
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