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________________ केवल चोला बदला है। अगर आत्मा का ज्ञान नहीं हुआ, तो आदमी भले ही सारी जिन्दगी साधना करते-करते बिता दे, कहीं कोई सार्थक परिवर्तन उसके जीवन में नहीं आएगा। उसकी नजरें संसार की ओर ही लगी रहेंगी। वह भरत नहीं बन पाएगा, जो संसार में रहते हुए भी शिखर की ओर देख सकता है। ___अब जरा चिंतन करें, शिखर पर कौन और संसार में कौन? अगर आदमी शिखर पर बैठकर भी नजरें संसार पर रखता है, तो उसमें और गिद्ध में क्या अंतर है ? गिद्ध भले ही कितना ही ऊँचा उड़े, उसकी नजरें तो नीचे मांस के टुकड़े पर ही रहती है। कहने को तो वह आकाश में उड़ता है, मगर रहता वह जमीन पर ही है। इसलिए भगवान महावीर दर्शन की विशुद्धि पर जोर देते हैं। वे सम्यक् दर्शन के उपार्जन पर जोर देते हैं। भीतर जब तक विशुद्धि नहीं होगी, गंदगी साफ नहीं होगी, हम बाहर से भले ही स्वयं को वीतरागी घोषित कर दें, हमारा राग-द्वेष जीवित रहेगा। महावीर अगर चाहते तो खुद को गृहस्थी तीर्थंकर घोषित कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने पूरी तरह परिवर्तन में विश्वास किया। मुनि बनने के बाद उन्होंने सबसे पहला काम भीतर की विशुद्धि का किया। केवल बाहर के परिवर्तन का परिणाम यह होता है कि भीतर कोई परिवर्तन नहीं आ पाता। ऐसा आदमी मंदिर में जाकर प्रार्थनाएँ कर लेगा, मिठाइयाँ व फल भी चढ़ा देगा, मगर उसके मन में परमात्मा नहीं होंगे। हम हर समय संसार में ही जीते हैं। हमारे भीतर तो संसार ही घूम रहा है। वही कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ भीतर सिर उठाती रहती हैं। यूं भी चौबीस घंटे संसार में जीने वाला व्यक्ति आधे-एक घंटे के लिए मंदिर जाता है और इस अवधि में भी वह संसार से ऊपर नहीं उठ पाता। ____ मंदिर जाने मात्र से ही हमारे भीतर भगवत्ता का फूल न खिल पायेगा। मंदिर में चले गये और मन मंदिर न बना, तो जाने की क्या सार्थकता होगी? शिवालय में जाना तभी सार्थक होगा, जब तुम शिवत्व को उपार्जित करो। तुम्हारा मन शिव-सुन्दर बन जाये। मंदिर में मूर्ति के दर्शन से श्रद्धा, सौम्यता और चित्त की एकाग्रता उपलब्ध होनी चाहिये। मंदिर में प्रतिमा निहारो खुली आँखों से और फिर उसी को निहारो अपने अन्तर में बंद आँखों से। प्रतिमा में जिसे तुम निहारना चाहते हो, वह तुम्हारे भीतर है। अगर ऐसा कुछ नहीं होता है और सिर्फ मत्था टेकने ही मंदिर जा रहे हो तो मंदिर तो जिंदगी भर चले जाओगे, मत्था भी टेक लोगे, पर निज के 'जिन' को न पहचान पाओगे। ___ महावीर के पास गौशालक भी आया था और गौतम भी आए थे, लेकिन दोनों में बहुत अंतर था। अगर महावीर के पास जाने मात्र से ही किसी का भला होता, तो गौतम ही क्यों, गौशालक का भी बदलाव होता, मगर ऐसा नहीं हआ। यह तो उनके भीतर की प्यास थी, जिसने गौतम को कहाँ से कहाँ पहँचा दिया।गौशालक वहीं रह गया। कृष्ण का सामीप्य तो युधिष्ठिर ने भी पाया और दुर्योधन ने भी पाया, मगर दोनों की जो गति हुई, सभी जानते हैं । हम कितने भी ऊँचे आदमी, महापुरुष के पास चले जाएँ, जब तक हम स्वयं अपनी नजरों को पवित्र नहीं करेंगे, तब तक वहाँ से भी बुराइयाँ-ही-बुराइयाँ ढूंढते रह जाएंगे और अपने जीवन में कोई परिवर्तन नहीं कर पाएँगे। Jain Education International For Pers 59. Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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