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हैं। उसे अपने 'कलुष' तो नजर आते ही नहीं, क्योंकि वह अपने भीतर देखता ही नहीं है। वह जान-बूझकर इससे विमुख रहता है। हम अपने विचारों को कदम-कदम पर कलुषित करते चले जाते हैं। अगर हमारा अन्तर्-अस्तित्व कलुषित हो रहा है, तो बाह्य वैभव जीवन की सांध्य वेला में हमारे सामने प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ा हो जाएगा।
सड़क पर लड़का-लड़की एक साथ जा रहे हों तो हर देखने वाला उनके बारे में अलग-अलग धारणा बनाएगा। प्रायः उसका निष्कर्ष यह होगा कि यह लड़का इस लड़की को पटाकर कहीं ले जा रहा है, जबकि वे दोनों वास्तव में भाई-बहिन होते हैं । यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम गंदगी से ऊपर उठने का प्रयास भी नहीं करते। किसी गलत से गलत तत्त्व में भी कोई अच्छाई हो सकती है। उसके बारे में गलत-सही किसी भी तरह की प्रतिक्रिया हो सकती है।
दूसरों को कुछ कहने की बजाय हम अपने गिरेबान में झांकें। अपना चेहरा कितना कलुषित है, इस ओर नजर डालें। जब तक भीतर का कल्मष साफ नहीं करेंगे, तक तक हमारे कृत्य पवित्र नहीं हो पाएंगे। जिस दिन इस पर लगा ढक्कन उठ गया, भीतर की गंदगी की दुर्गन्ध बाहर आ जाएगी।
मात्र बाहर का परिवर्तन सार्थक परिणाम न दे पाएगा। ऐसे लोग भी हुए हैं कि ऊपर से तो वे राज-सिंहासन पर बैठे, लेकिन भीतर से उनमें साधुत्व घटित हो गया। महाराज भरत भगवान ऋषभदेव के पुत्र थे। कहते हैं कि एक दिन धर्म सभा में भरत ने भगवान से पूछ लिया कि 'प्रभु मेरी गति क्या होगी?' भगवान ने कहा- 'पुत्र, तू मोक्ष को प्राप्त होगा।' सभा में एक मनचला भी बैठा था। उसने व्यंग्य किया- 'वाह ! यह भी खूब रही ! पिता मोक्ष देने वाले और पुत्र मोक्ष प्राप्त करने वाला।' भरत ने उसे देखा तो चुपचाप बैठे रहे। अगले दिन उन्होंने उस व्यक्ति को दरबार में बुलाया। उन्होंने उससे कहा कि 'मैं चाहता हूँ, तुम पूरा नगर घूम कर आओ और वापस आकर नगर के सौन्दर्य का वर्णन करो। तुमको उचित इनाम दिया जाएगा। वह व्यक्ति बड़ा प्रसन्न हुआ।
भरत ने सैनिकों को इशारा किया। सैनिकों ने उस व्यक्ति के सिर पर तेल से भरा एक कटोरा रख दिया। भरत ने चेतावनी दी कि यदि कटोरे से तेल की एक बूंद भी गिर जाए, तो इस व्यक्ति की गर्दन काट दी जाए। अब वह व्यक्ति घबराया। वह कटोरा सिर पर रखकर पूरा नगर घूम आया। उसकी खुशकिस्मत रही कि तेल की एक भी बूंद नहीं गिरी। उसने दरबार में आकर चैन की सांस ली।
राजा ने उससे पूछा कि 'तुम पूरा नगर घूम आए, बताओ कैसा लगा हमारा नगर?' उस आदमी को तो अपनी जान की पड़ी थी। वह बोला- 'महाराज ! मेरा सारा ध्यान तो कटोरे में भरे तेल की तरफ था। नगर में क्या है, यह मैं कब देखता?' भरत ने उसे समझाया- 'भाई! कल तुम ही तो कह रहे थे कि पिता मोक्ष देने वाले, पुत्र मोक्ष लेने वाला। इसका जवाब यही है । मैं इस राज-सिंहासन पर जरूर बैठता हूँ, मगर मैं इससे बहुत ऊपर उठा हुआ हूँ। मेरा लक्ष्य राज-सिंहासन नहीं अपितु आत्म-सिंहासन है।'
जो व्यक्ति अपने आपको धुरी पर कील की तरह स्थिर बनाए रखता है, वह भले ही धुरी पर घूमता रहे, उसकी कील तो स्थिर ही रहेगी। जिस व्यक्ति को आत्मा की चेतनता का ख्याल है, वही श्रमण है। शेष का तो
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