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केश लोचन करने वाला, भभूत रमाने वाला साधक वृत्तियों से मुक्त नहीं हो पाएगा। अपने को भीतर से बदलने की तो बात ही और है। बाहर के परिवर्तन से ही रूपांतरण हो जाता तो हिमालय की कन्दराओं में वर्षों से तपस्या करने वालों के भीतर क्रोध की चिंगारियां नज़र नहीं आतीं ।
महावीर ने संसार छोड़ा था तो किसी नियमबद्ध चारित्र - पालन के लिए नहीं छोड़ा था। उन्होंने सत्य की खोज के लिए संसार छोड़ा था। भीतर के कचरे को साफ करने के लिए संसार त्यागा था। एक व्यक्ति ऊपर से तो बहुत से पुण्य करता है, लेकिन भीतर से पाप करता है, तो जरा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति पुण्यात्मा है या पापात्मा ? आदमी के गलत कृत्य उसका पीछा नहीं छोड़ते। मन से जो भी गलत काम किया जाता है, वह 'पाप' कहलाता है, जबकि शरीर से होने वाला 'अपराध' कहलाता है ।
महावीर पहले मन को निर्मल करने की बात करते हैं । चित्त को प्रक्षालित करने की बात कहते हैं । वे सबसे पहले अपने को भीतर से साफ करने पर जोर देते हैं । व्यक्ति भीतर से साफ-सुथरा होगा तो ऊपर से वैसा स्वतः ही बन जाएगा। लेकिन हम तो बाहरी चमक-दमक पर ध्यान देते हैं। बाहर से तो सजावट कर लेते हैं, लेकिन भीतर का कचरा साफ नहीं करते । भीतर परिवर्तन करने की गुंजाइश जब तक नहीं होगी, ऊपर की सजावट मात्र लीपापोती होगी ।
कबीर, मीरा, रैदास आदि के उदाहरण लीजिये। ये सब भीतर से बदल गए थे। ऊपर से तो देखकर कोई उन्हें संत कह ही नहीं सकता था, क्योंकि वे अपनी ही धुन में चलते थे। कबीर -रैदास और राजचन्द्र कभी साधु नहीं बने होंगे । मगर उन्होंने साधुत्व का ही जीवन जीया । वे सब भीतर के परिवर्तन की गुंजाइश लेकर चलते थे। बंधन कभी बाहर से नहीं होते, भीतर से ही होते हैं । इसलिए चैतन्य के शिखर महावीर भीतर के परिवर्तन की बात करते हैं ।
भगवान महावीर ने सबसे पहले सम्यक् दर्शन पर जोर दिया, यानी नजरों को साफ-सुथरा करना। साधना के सारे आयाम भावना के ऊपर हैं। अगर व्यक्ति के भाव ही कलुषित हैं तो जीवन कलुषित होगा ही। एक बिल्ली चूहे को मुँह में दबाकर चलती है तो चूहा चीं-चीं करता है। वही बिल्ली अपने बच्चे को मुंह में दबाती है तो वह चूं भी नहीं करता। यहाँ भी भाव का अंतर है । चूहा जानता है कि उसका अंत समय आ गया है, इसलिए वह चीं-चीं करता है, जबकि बिल्ली का बच्चा जानता है कि मेरी माँ मुझे कहीं बचाने के लिए लेकर जा रही है, इसलिए उसने मुझे मुँह में पकड़ा है।
दोनों मामलों में भिन्न-भिन्न भाव होने के कारण वहाँ अलग-अलग चित्र सामने आते हैं। इसलिए कहते हैं कि मनुष्य के कृत्य भावों पर अधिक निर्भर करते हैं। अगर भावों की विशुद्धि है तो आदमी अपने आप को कहीं भी उबार लेगा और यदि भाव विशुद्ध नहीं है, तो राख पर लीपा-पोती ही होती रहेगी। इसलिए सबसे पहले अपने को भीतर से पवित्र करो ।
आदमी की प्रकृति ऐसी है कि वह अपनी कमजोरियों को नहीं देख पाता । उसे हमेशा दूसरों में दोष ही दिखाई देते हैं । आदमी ने काला चश्मा आंखों पर चढ़ा रखा है, इसलिए उसे दूसरों के 'कलुष' ही दिखाई देते
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