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________________ दुनिया के दलदल में खिलते कमल तपस्या करने के कई तरीके हैं। कुछ लोग संसार त्याग कर पहाड़ों पर चले जाते हैं, तो कुछ लोग जंगल में जाकर धूनी रमा लेते हैं। कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो एक पाँव पर खड़े होकर बारह-बारह वर्ष तक तप करते हैं । कई ऐसे भी साधु हुए जो एक हाथ ऊँचा कर तपस्या करते रहे। कई लोगों ने श्मशान में ही डेरा जमा लिया, ताकि संसार की नश्वरता को साक्षात् देख सकें। बहुत से लोग अपने शरीर को सुखा लेते हैं और उनके शरीर पर पक्षी अपने घोंसले बना लेते हैं। आपने सुना होगा, कई तपस्वी ऐसे भी हुए जो अपने चारों तरफ आग जलाकर तपस्या करने खड़े हो गए। इतना होने के बावजूद ऐसे कितने लोग हैं, जो वास्तव में आत्म-ज्ञान पा सके ? क्या उनमें कहीं कोई परिवर्तन आ सका ? भीतर तो तब भी क्रोध की चिन्गारियां जीवित रहीं। कलुषता में, अहंकार में कहीं कमी नहीं आई । उलटे तप करके आदमी को यह घमण्ड और हो गया कि मैंने इतने मुश्किल तरीके से तपस्या की है। यह घमण्ड तथा आत्मश्लाघा ही तो साधक की शत्रु है। हम भले ही चाहे जितनी तपस्याएँ कर लें, जब जक हम अन्तर-शुद्धि नहीं करेंगे, तब तक जीवन की विशुद्धि नहीं होगी । व्यक्ति बाहरी तपस्या के मामले में काफी आगे बढ़ जाता है। ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने लाखों-करोड़ों का दान दिया है, वर्षों से जो शील व्रत का पालन कर रहे हैं, व्रत-उपवास कर रहे हैं, पर इसके बावजूद उनमें इस बात का ही अहंकार है कि मैं तपस्वी, मैं दानी, मैं ब्रह्मचारी हूँ । चाहे तपस्या हो या दान, अगर 'मैं' का भाव साथ में बढ़ता जा रहा है, तो व्यक्ति कितना भी आगे बढ़ जाये, वापस वहीं आना पड़ेगा, जहाँ से उसने यात्रा प्रारम्भ Jain Education International 49 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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