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हमारी आसक्ति के धागे भी गजब के हैं। ऐसा नहीं है कि व्यक्ति केवल परिवार के प्रति ही आसक्ति रखता है, हम तो छोटी-छोटी चीजों के प्रति आसक्त होते चले जा रहे हैं। ऊपर से विडम्बना यह है कि हम आसक्ति के इन बिन्दुओं को समझ भी नहीं पाते।
हमारा राग केवल शक्कर से ही नहीं, नमक के प्रति भी है। मिठास ही नहीं, कड़वाहट के प्रति भी आसक्ति है। हम राग के दायरे से निकल ही नहीं पाते। सब्जी में नमक कम हो तो हम पत्नी पर झल्ला उठते हैं। भोजन हमारे जीवन की आवश्यकता है, मगर हमने उसके प्रति भी आसक्ति कर ली।
सम्मोहन के दायरे काफी विस्तृत हैं। छोटी-छोटी चीजों के प्रति हमारी गहन आसक्ति है। व्यक्ति साधना के मार्ग पर तो कदम बढ़ा लेता है, मगर आसक्ति के कारण उसे स्वर्ण-मछली का जीवन मिलता है। आदमी संन्यासी हो जाता है, लौकिक प्रगति करते हुए वह समाज का आचार्य भी बन जाता है, मगर भीतर के बंधनों से नहीं छूट पाता। बाहर के बंधन तो टूट जाते हैं, मगर भीतर, जो बेड़ियाँ लगी हुई हैं, वे टूट नहीं पाती हैं । भीतर के बंधन तो जारी ही रहते हैं। संसार में रहना गलत नहीं है, लेकिन संसार के प्रति जो यह सम्मोहन है, उसे तोड़ना जरूरी है।
आदमी अपने अहंकार की पूर्ति के लिए झूठ बोलता है। अपनी इच्छा से चोरी करता है, गलत काम करता है। ये सारे कार्य आसक्ति के कारण ही हो रहे हैं। आदमी की आसक्ति है भी बहुत गहन। कहीं यात्रा करने जाते हो तो सीट का आरक्षण करवाते हो। उस आरक्षित सीट के प्रति भी आसक्ति इतनी गहरी हो जाती है कि पूरे रास्ते 'मेरी सीट, मेरी सीट' करते रहते हो। एक बात याद रखो, सम्मोहन कभी 'सच्चाई' नहीं हो सकता। वह हमेशा झूठ ही होता है।
दुनिया में जीना है तो ऐसे जीओ, जैसे भरत जिये और जैसे जनक जिये। संसार में रहते हो तो परिवार का पालन-पोषण जरूरी है, मगर संसार से चिपटा रहना ठीक नहीं है। आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उपयोग जरूर करो, मगर आवश्यकता पूरी होते ही उसे छोड़ दो अन्यथा होता यह है कि व्यक्ति की आवश्यकताएँ तो पीछे छूट जाती हैं किन्तु आकांक्षाएँ व्यक्ति के पीछे पड़ जाती हैं। आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही आदमी गलत काम करता है और आकांक्षाएँ कभी समाप्त नहीं होती, वे बढ़ती ही जाती हैं।
सारी जिन्दगीभर भटक लो किन्तु हमारी इच्छा, लालसा व कामना का कहीं अंत नहीं होगा। ज्ञानी कहते हैं कि इच्छाओं को कम करो, क्योंकिइच्छाएँ आकाश की तरह अनन्त हैं। क्या आकाश का कहीं ओर-छोर दिखाई देता है ? उसी तरह इच्छाएँ हैं। पता नहीं कब, कौनसी इच्छा पैदा हो जाए? इच्छाएँ दूसरों को देखकर भी बढ़ती हैं। पड़ौसी के पास स्कूटर है, तो आपको भी स्कूटर चाहिए। स्कूटर होगा तो कार की इच्छा होगी। इच्छाओं का कहीं कोई अंत नहीं है । जीवन का अन्त है, पर इच्छाएं अनन्त है।
पैसे खूब कमाए, स्थिति बदल गई। झोंपड़ी से महल में आ गए, मगर इच्छाएँ समाप्त नहीं हुयीं। तीन हजार कमाते थे, तीन लाख कमाने लग गए, मगर भूख नहीं मिटी। यह क्यों नहीं सोचते कि उस समय क्या हाल होगा, जब लाद चलेगा बंजारा । फिर क्यों इतना अनाचार-अत्याचार ? जब तक तुम्हारे जीवन की आवश्यकता है, तब
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