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________________ मैं आपसे यही कह रहा हूँ कि हम हमारी मानसिक सोच को बदलें, कहीं ऐसा न हो कि जीवन ही धुंआ बन जाये। ऐसा जीवन तो मृत्यु से भी बदतर है, जो मसाल न बन पाया और मात्र धुंआ ही बना रह गया। साधना ॥ पाना नहीं, जीवन को बदलना है साधना । धुंए - सा जीना व्यर्थ है, जलना है मुंड मुंडाना बहुत सरल, मन का मुंडन आसान नहीं । व्यर्थ भभूत रमाना तन पर, गर भीतर का भान नहीं । पल-पल समता में इस मन का, ढलना है साधना ॥ मंदिर में हम बहुत गये पर, मन यह मंदिर नहीं बना। व्यर्थ शिवालय में जाना, जो मन शिव - सुन्दर नहीं बना । जग की पीड़ा में मोम-सा, पिघलना है साधना ॥ सच्चा पाठ तभी होगा, जब जीवन में पारायण हो । साँस - साँस धड़कन से जुड़ी हुई रामायण हो । प्रभु प्रेम-पंथ पर जन-जन का चलना है साधना ॥ सिर का मुंडन करना और शरीर पर भभूत लगाना सरल है। यह सब कुछ तो आसान है पर मन का मुंडन और आत्मा का ज्ञान पाना ही तो साधना का उद्देश्य है। अगर मन को न साध पाये, 'मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा' वाली स्थिति हमारी रही, तो शरीर को आतापना देने के लिए भले ही तुम धूप में खड़े हो जाओ, पर मन तो छाया ही चाहेगा। शरीर से उपवास कर लोगे पर मन भोजन में भटकता रहेगा। शरीर क्या कर रहा है यह खास बात नहीं है। खास बात है मन क्या कर रहा है ? इसलिए मात्र वेश के नहीं, जीवन के साधु बनें, सिर के साथसाथ मन को भी मुंडित करने का प्रयास करें । मात्र वेशान्तरण ही साधु-जीवन होता तो हर कोई साधु बन जाता। अगर नग्नत्व ही मुनि बनने की निशानी होती तो नहाते समय तो हरेक होता ही है। लेकिन केवल इतने से जीवन में साधुता का फूल नहीं नहीं खिल सकता। लोग साधु बन जाते हैं और अपने प्रवचनों में प्रचार करते फिरते हैं कि मैंने पचास लाख की सम्पत्ति छोड़ कर संन्यास लिया । एक व्यक्ति संन्यासी बना। मैं उसे पहले से जानता था। वह अतीत की गाथायें गाया करता था। वह प्राय: कहता कि मैं सत्तर लाख की सम्पदा छोड़ कर आया हूँ। एक दिन मैं भी वहाँ चला गया। वह मुझे नहीं पहचान पाया। मैंने उससे पूछा कि महाराज ! आप तो वही हैं ना, जो अमुक मोहल्ले में डाक बांटा करते थे। वह हैरान हुआ, लेकिन सच्चाई स्वीकारने की जगह वह मुझ पर क्रोधित उठा। मैंने तो वहाँ से खिसकना ही ठीक समझा । बाहर से तो छोड़ आए, मगर भीतर राख के नीचे अभी चिंगारियां जिंदा । जीवन रूपांतरण की बजाय मात्र वेश रूपांतरण अपनी अपेक्षा पूर्ण न कर पायेगा। खूंटे बदल रहे हैं, बंधन नहीं बदला। जब तक खूंटे बदलते रहोगे, जंजीर तो रहेगी । Jain Education International 16 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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