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सो परम महारस चाखै
मेरे प्रिय आत्मन!
मनुष्य चेतना का पुंज है। आत्म-चेतना ही मनुष्य का मूल अस्तित्व है | चेतना के अभाव में कोई तत्त्व जीवित नहीं है, मृत है । चेतना किसी वस्तु में संचारित हो जाए, तो वह वस्तु, वस्तु नहीं रहती, व्यक्ति बन जाती है । उसका अपना व्यक्तित्व हो जाता है। वस्तु का व्यक्तित्व ! चेतना के कारण ही सारी आँख-मिचौनी है, नाड़ी में स्पंदन है, आवागमन और दिल की धड़कन है। ज्ञान और अध्यात्म की. जीवन और संसार की सारी गतिविधियां मनुष्य की चेतना के कारण ही हैं। चेतना विराट हो जाए, तो व्यक्ति के लिए परमात्म रूप को उपलब्ध करना हुआ ! चेतना का चैतन्य होना अध्यान का आत्मसात होना है; चेतना का सुषुप्त होना संसार के आंगन में मृत्यु की दस्तक है । चेतना कुंठित हो जाए, तो संसार का निर्माण होता है ।
चेतना निर्जीव से सजीव हुई, देह से विदेह हुई, तो यह उसका भूगारूप है। सच तो यह है कि आज नहीं तो कल हर चेतना, हर व्यक्ति, अस्तित्व के प्रत्येक अंश को परमात्मा होना ही है । जो बीज
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सो परम महारस चाखै/६
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