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किसी ने दो गालियां दे दी या तारीफ कर दी, तो व्यक्ति को अपनी मस्ती में मस्त रहना चाहिए, कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये । बहुत वर्ष पूर्व एक गांव में एक अविवाहित कन्या गर्भवती हो गई । घर वालों में विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई । यह स्थिति होना स्वाभाविक थी । घर वालों ने कन्या को डांटा-डपटा, मारा-पीटा कि बताओ सच क्या है ? यह किसका पाप है तुम्हारे पेट में । लड़की घबराई मगर बाद में न जाने क्या सोचकर उसने कहा कि गांव के बाहर जो संत ठहरे हुए हैं, यह बच्चा उन्हीं का है। घर वालों को बड़ा आश्चर्य और क्रोध हुआ कि संत के ऐसे कृत्य हैं। वे संत के पास गए और जाकर संत को सारा वृतांत सुनाया। संत मुस्कुराए और कहा, ओह, ऐसी बात है क्या ? सन्त ने उस कन्या व उसके पेट में पलने वाले बच्चे की जिम्मेदारी अपने सिर ले ली ।
वे सब वापस घर आ गए। यह सोचकर कि चलो बला टली । संत से लड़ते-झगड़ते, तो वह कन्या को इस तरह स्वीकार नहीं करता । घर आने के पश्चात् कन्या को बड़ा पश्चाताप हुआ। वह रोने लगी, तो घर वालों ने पूछा- अब क्या परेशानी है। अब तो संत ने तुम्हें स्वीकार कर लिया है। तो वह बोली- सच तो यह है कि यह बच्चा संत का नहीं अपितु पड़ौस के लड़के का है। मैंने उसका कलंक संत के ऊपर लगाया। घर वालों को भी बड़ा दुःख हुआ और संत के पास जाकर क्षमायाचना की । सारा वृतांत सुना डाला। लेकिन इन दोनों ही परिस्थितियों में संत का एक ही वक्तव्य था - ओह ऐसी बात है क्या-तो मामला यह है। अपनी तो दोनों में मौज है। तुम्हीं आरोप लगाने आए और तुम्हीं ने नकार भी दिया। मैं तो वैसा का वैसा रहा । इसी शांति का नाम सामायिक है, समता है ।
संपत्ति नाहीं नाहीं ममता में, रमतां राम समेटै । खाट-पाट तजि लाख खटाऊ, अंत खाक में लेटै । ।
बाबा कहते हैं कि ममत्व में कोई सम्पत्ति नहीं होती। ममत्व मनुष्य की आध्यात्मिक संपदा नहीं है । ममत्व में भीतर का राग बड़ा संकुचित हो जाता है। अब तक मेरा-मेरा करते हुए न जाने कितने राजा-महाराजा हुए लेकिन अपने महल - महराव अंत में सभी कुछ यहीं
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सो परम महारस चाखै/७५
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