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जाओ! तीसरी बार जब वह वहां पहुंचा तो देखा कि पानी बिलकुल साफ है, मिट्टी नीचे जम गई है। शिष्य पानी भर लाया और गुरु को पानी पिलाया।
___मन को शांत और समता को आत्मसात करने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता वरन् सिर्फ इन्तजार करना पड़ता है, धीरज रखना पड़ता है। मन के भीतर विकल्प पैदा करने वाले गंदलेपन के नीचे जमने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
मन का सरोवर शांत हो जाएगा, यदि साक्षी-भाव जगा लो। मात्र दृष्टा-भाव को अपने में प्रकट कर लो। जिस तरह नदी के किनारे बैठकर नदी के पानी को निहारा जाता है, ठीक ऐसे ही मन में उठने वाले विकल्पों को देखा जाता है। देखना ही काफी है। विकल्पों की सम्प्रेक्षा-विपश्यना करते-करते मन शांत हो जाता है। इसका अनुभव आपने ध्यान में किया कि अगर श्वास की प्रेक्षा करते चले जाओ, अपने विकल्पों की विपश्यना करते चले जाओ, तो जो मन आंधी की तरह भड़कता था, दावानल की भांति सुलगता था, दीये की तरह कज्जल देता था, वही शांत और शून्य हो गया। जरूरत मन को शांत करने की नहीं, जरूरत केवल किनारे बैठकर देखने की है। उठते-बैठते विकल्पों को निहारने की है। उस दृष्टा, उस साक्षी को जगाने की है, जो मनुष्य मात्र के भीतर बैठा हुआ है, भीतर बैठा स्वामी !
भीतर बैठे उस स्वामी को जगाने की जरूरत है, यह दृष्टि को सम्यक बनाने का उपाय है। देव, गुरु और धर्म के प्रति सिर झुका लेने मात्र से सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं हो पाएगी। श्रावक कहला तो लोगे लेकिन श्रावकत्व अर्जित नहीं होगा। श्रावकपने का तिलक सिर पर लगाने में, बातें करने में और सच्चा श्रावक होने में जमीन-आसमान का अंतर है।
व्यक्ति का मन शांत और शून्य हो जाने पर भीतर जिस चैतन्य के जागरण का अनुभव होता है, वही सही अर्थों में अनुभव है। वह एक अलख आनंद है। वह जीवन की एक अपूर्व गहराई है। अपने शांत मन का अनुभव, समाधि का अनुभव है। अपनी केवलता की सम्बोधि ही कैवल्य-दशा है। मैंने अपने मन के सरोवर में उठने वाली तरंगों को एक किनारे बैठ कर देखा है। घंटों नदियों में उठती लहरों
सो परम महारस चाखै/७१
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