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________________ मनुष्य का मन शांत हो जाए तो समता घटित हो जाती है, वहीं मनुष्य का मन एक ही मार्ग पर बह जाए तो ममता निर्मित हो जाती है। मनुष्य का मन जव विशृंखलित और विघटित होता है, तो विषमता पैदा होती है। अखंड मन का नाम ममता है और मन के मिट जाने का नाम समता है। जो मन चंचल, बदहवास और मायूस नजर आता है अगर वही मन लीन हो जाए, मौन हो जाए, मुनित्व के अर्थ स्वयं में धारण करले, तो व्यक्ति के लिए स्वर्ग का निर्माण करेगा। जीवन में उत्सव घटित करेगा और तव मुनित्व की स्थिति में मुक्ति और मोक्ष शब्द मात्र नहीं होगे अपितु उनका रसास्वादन होगा। मरने के बाद मिलने वाली मुक्ति का कोई अर्थ नहीं है। सारे अर्थ जीते जी हैं। यदि हमारे भीतर अनुभव की कोई किरण नहीं उतरती, जीते जी मुक्ति का रसास्वादन नहीं हो सकता, तो मरने के बाद कोई गुंजाइश नहीं है। जितना ज्यादा हम मन को विश्राम देंगे, अपने मन को आलसी बनाएंगे, हमारे-भीतर उतनी ही समता घटित होती जाएगी। मन को विश्राम देने का अर्थ यही है कि मन को पूरी तरह से आलसी बना लेना। जिस आलस्य को लोग त्याज्य समझते हैं, जीवन का हननकर्ता मानते हैं वही आलस्य मन के साथ लागू हो जाए, उसमें कोई चंचलता, भटकाऊपन न हो, तो वही आलस्य मन की शांति है। मन की अचंचलता मनुष्य के भीतर मुक्ति की पुष्पांजलि खिला सकती है। ___ एक सद्गुरु अपने शिष्य के साथ जंगल से गुजर रहे थे। जब वह चलते-चलते थक गए, तो पेड़ की ओट में बैठ गए। गुरु ने कहा, वत्स! प्यास लगी है। पास में ही पानी का झरना बह रहा है। उसमें से तुम पानी ले आओ। शिष्य वहां पहुंचा, तो देखा कि पानी गंदला है क्योंकि उसमें से राहगीर और मवेशी गुजर रहे थे। शिष्य ने वापस आकर गुरु से कहा, प्रभु! पानी तो गंदला है। आप आज्ञा दें तो कुछ ही दूरी पर एक नदी बहती है वहां से पानी ले आऊं। सद्गुरु ने कहा, नहीं! मुझे इसी झरने का पानी पीना है। तुम फिर जाओ। शिष्य वापस गया तो देखा पानी अभी भी गंदा है। वह खाली हाथ वापस गुरु के पास आ गया। शिष्य ने झरने के गंदे होने की बात कही पर गुरु ने कहा- मुझे उसी झरने का पानी पीना है, तुम वापस समता का संगीत सुरीला/७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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