SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रद्धा के कारण अनुभव नहीं घटित होता वरन् अनुभव घटित होने के बाद श्रद्धा उसका परिणाम होती है। श्रद्धा तो परिणाम के रूप में उपलब्ध हुई है। जब किसी चीज का अनुभव हो जाता है, तो उसके बाद आस्था न हो, यह सम्भव ही नहीं । आस्था अनुभव का उपसंहार है । आनन्दघन अनुभववादी संत हैं। उन्होंने तो उन लोगों को चेताया है, जिन लोगों को चेताना सबसे कठिन । गौतम को जगाना सरल है, गौशालक को जगाना - सुधारना कठिन है । बाबा ने गौतमों को सम्बोधित नहीं किया है, गौशालकों को सचेत किया है, उन्हें अपनी ओर खींचा है। उन्होंने उन लोगों को लपेटे लिया है, जो तत्त्व की तो महान चर्चाएं करते हैं मगर गच्छवाद में उलझे हुए हैं। उन्हें चेताया है जो अध्यात्म की ऊंची-ऊंची उड़ानें भरते हैं परन्तु बाहरी क्रियाकाण्ड में ही धर्म और अध्यात्म का सार समझते हैं। बाबा उन लोगों के लिए ललकार हैं जो छद्म वेशधारी हैं, मुंह में राम बगल में छुरी जैसी कहावत जिन लोगों पर चरितार्थ होती है, उनके लिए वे ललकार हैं, दूसरे कवीर हैं । मैंने देखा है, लम्बे-चौड़े स्वाध्याय और तत्त्व - रटन्त करके व्यक्ति अपने आपको पंडित बना लेता है लेकिन जैसे ही गच्छ, समुदाय, सम्प्रदाय, जाति-पांति की बात आती है पता नहीं उसका तात्त्विक ज्ञान कहां चला जाता है। आदमी तत्काल किनारे हट जाता है । तब उसके लिए अध्यात्म नहीं रहता, उसके लिए मात्र गच्छ रह जाता है। वह सत्य का नहीं, अपनी जात का समर्थक हो जाता है । जब तक व्यक्ति के हृदय से गच्छ और सम्प्रदाय के भाव नहीं मिट जाते, तब तक व्यक्ति का अध्यात्म में प्रवेश हुआ ही नहीं। वह धार्मिक, आध्यात्मिक कहलाएगा लेकिन धार्मिक कहलाना और धार्मिक होना, इसमें बहुत फर्क है। व्यक्ति कहला तो सब कुछ सकता है, कहलवाने में क्या लगता है लेकिन धार्मिकता और आध्यात्मिकता का आचमन एक अलग तथ्य है । बाबा कहते हैं तत्त्व की चर्चा करते हो मगर गच्छवाद में उलझे रहते हो। ऐसा करते तुम्हें लज्जा नहीं आती? संदेश तो अध्यात्म के देते हो मगर जीते हो ऊपर की लीपापोती में । अनासक्ति सध जानी चाहिए । सम्भव है कि आनंदघन हमें ललकारें। हमारी जो पूर्व मान्यताएं हैं उन्हें चोट पहुंचाएं। बाबा तो हम पंछी आकाश के / ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy