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________________ श्मशान तो वे स्थान होते हैं, जहां क्षणभंगुरता का इतिहास लिखा जाता है, जहां जीवन के समापन की रेखाएं खींची जाती हैं। राजस्थान की मरुभूमि में आनन्दघन जैसे स्वर्णकमल खिले। एक ऐसा औलिया, जिसने श्मशान को अपनी तपोभूमि बनाया। गुफाओं में जिसने निवास किया। बरगद की छांह में जिसने अपना जीवन बिताया। यह जैन जगत् का पहला अवधूत हुआ, पहला ओघड़। गोरख जैसा सिद्ध योगी, कबीर जैसा फक्कड़, नानक जैसा भक्त, फिर भी अपने आप में निराला-अप्रतिम। बड़े न्यारे-निराले पद गाये हैं बाबा ने। बड़े रसीले, एक आत्मिक कसक भरे। बाबा आनन्दघन के पदों को रस लेकर पढ़ा जाए तो मेरे देखे, व्यक्ति के भीतर वैराग्य की हिलोरें स्वतः ही उठने लगेंगी। बाबा अपनी आजादी के लिए लड़ने वाले और अपनी आजादी को बढ़ाने वाले संत हैं। उनका पथ तो मुक्त गगन है। स्वतन्त्रता, आत्मस्वतन्त्रता। कोई व्यक्ति गुरु के पास अपने बंधनों को बढ़ाने के लिए नहीं वरन् अपनी आजादी को बढ़ाने के लिए जाता है। अपनी आत्मस्वतन्त्रता को और अधिक उपलब्ध करने के लिए जाता है। कल ही एक पत्र था। एक सज्जन ने लिखा-वह बन्धनों में है और अपने बन्धनों से मुक्त होना चाहता है। अपनी आजादी को पाने के लिए, अपनी आजादी को बढ़ाने के लिए मुझ तक आना चाहता है। स्वागत है। तुम उड़ लो तो तुम्हारा सौभाग्य! मैं तो उड़ता हुआ वह परिंदा हूँ, जिसके पीछे कोई पदचिह्न नहीं छूटने वाले हैं। मेरे पास कोई अंकुश नहीं है, सिर्फ उड़ान की प्रेरणा है, उड़ने का उत्साह है। बन्धन मुझे पसन्द नहीं। मुक्ति हर ओर से, हर दृष्टि से। __ बड़ी अजीब बात है, जब व्यक्ति गृहस्थ होता है, तो उसके ऊपर गृहस्थी की मान-मर्यादाएं होती हैं, कई अंकुश होते हैं। उन्हीं से मुक्त होने के लिए वह सोचता है साधु बन जाए लेकिन देखते नहीं हो, साधु पर भी कितने अंकुश हैं? संतों पर श्रावकों के अंकुश, समाज के अंकुश! साधु आजाद होता है। वह किसी का गुलाम नहीं होता। गुलामी आखिर गुलामी होती है, चाहे वह समाज की हो या समुदाय की अथवा सो परम महारस चाखै/३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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