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मैंने एक गांव में एक व्यक्ति को देखा, जो हुबहू गांधी जैसा था। वह वैसी ही लंगोटी पहनता, वैसा ही अंगोछा रखता, चलता तो साथ में बकरी व हाथ में लाठी रखता । वह चलता भी तो गांधी की तरह। लोगों ने उसे समझाया कि तू गांधी नहीं है; फिर भी वह अपने आपको गांधी मानता । मन में यह विचार घर कर गया कि मैं गांधी
किसी ने कहा, इसका गांधी का भाव कैसे उतारें। इसे गांधी कहलाने का पागलपन चढ़ गया है। मैंने कहा, यह बहरूपिया है । किसी को गोड़से बनाकर खड़ा कर दो, इसका गांधीपन गोल हो जाएगा ।
मृत्यु ! तुम्हारे तादात्म्य को तोड़ने की आखरी गोली, आखरी दवा है । मृत्यु तुम्हारा कंधा छूने को आ जाए, तो सारा तादात्म्य रफू चक्कर । था भी कि नहीं, पता ही नहीं चलता । किसी पर कीचड़ उछाल रहे थे या किसी के साथ इन्द्रधनुष बना रहे थे, सब भूल ही जाओगे ।
तादात्म्य के, मोह के, राग के पार उठकर देखो, अपने मन की चंचलताओं को दरकिनार रखकर देखो, तो पता चलेगा कि तुम क्या हो ।
तुम मेरा नाम रखो। मैं तुम्हें अपना परिचय देता हूँ कि मैं कैसा
हूँ
अवधू नाम हमारा राखै, सो परम महारस चाखै ।
नहीं हम पुरुषा, नहीं हम नारी, बरन न भांति हमारी । जाति न पांति, न साधु न साधकं, नहीं हम लघु नहीं भारी
बाबा कहते हैं कि मैं अपने परिचय में स्पष्ट कर दूं कि न मैं पुरुष हूँ, न मैं स्त्री क्योंकि ये विभेद ही तो सारी समस्याओं के मूल हैं। मनुष्य के मस्तिष्क में यही तो भाव घर किया हुआ है कि वह पुरुष है या स्त्री है। जब तक कोई भाव रहेगा, तब तक तुम सोचते रहोगे कि हम परस्पर जुड़ें या परस्पर स्पर्श न करें ।
स्त्री और पुरुष - ये दो भाव हैं, दो मनःस्थितियां हैं। ये दो कायागत विभेद हैं । स्त्री, स्त्री होकर भी खुद पुरुषत्व लिए हुए है
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सो परम महारस चाखै/१६
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