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________________ हट जाए, रूप की मूर्छा टूट जाए तो कैसा नाम और कैसा रूप? सारा अभिनय है। अस्तित्व तो सारा एक है। मरोगे तो भी यहीं रहोगे। मुक्त हो जाओगे तो भी यहीं।। इस गोरी-काली चमड़ी के भीतर की जो ऊर्जा व चेतना है, वही रूप है, वही रंग है। मैं आप लोगों से प्यार करता हूँ। आपके रूप या रंग से प्यार नहीं करता। आपके सुंदर हृदय से प्यार करता हूँ। प्यार तो भीतर की सुन्दरता से ही किया जा सकता है। बाह्य रंग, बाह्य रूप, जाति-पांति, वर्ण-वर्ग -यह मनुष्य की बुद्धि का छिछलापन है, मूल्यों की गिरावट है। इसीलिए बाबा आनंदघन कहते हैं कि मेरा नाम रखना हो तो वह नाम रखो, जिससे तुम्हें महारस का रसास्वाद मिले, महानंद की अनुभूति हो सके। मेरा नाम आनंदघन है, तो यह संबोधन-मात्र के लिए है। मैं भी जानता हूँ कि यह नाम कोई नाम नहीं है। पहले आनंदघन का नाम आनंदघन नहीं था। उनका नाम लाभानंद था और उससे पहले लाभरुचि या ऐसा ही कुछ रहा होगा। जब उन्होंने जान लिया कि उनके अन्तर्-जगत् में केवल आनंद ही घनीभूत है, तो उन्होंने सोचा कि लोग उन्हें आनंदघन कहकर पुकारें तो इससे शायद लोगों को आनंद प्राप्त हो। बाबा कहते हैं सो परम महारस चाखै । वह रसों का रस चखता है। ऐसा कोई पंडित नहीं दिखता जो उस अबूझ को बूझे । उस अनाम का नाम रखे। तुम उसे कहोगे आत्मा पर यह भी एक नाम ही हुआ। उसे अनुभवो, उसके रस में भीगो। उसके फाग में खेलो। उसकी ज्योति में प्रकाशित हो जाओ। बाहर की चमडी और इन आंखों से हटकर मेरा जो रूप है. उसे निहारो लेकिन आदमी की आदत ऐसी पड़ गई है कि जिसका नाम मिलापचंद या शिवप्रसाद रख दिया, वे वही बनकर रह जाते हैं। कोई पंडित किसी व्यक्ति को चार फेरे खिला दे, तो वह पत्नी या पति बनकर ही रह जाता है। मानो इससे जुदा उसका कोई व्यक्तित्व ही नहीं। सो परम महारस चाखै/१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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