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________________ यह मानता है कि मैं जानता नहीं हूँ। अपने आपको नहीं जानता। दुनिया की नजरों में गुणी होकर भी जो यह पहचानता है कि वास्तव में मुझमें कौन-कौन से दुर्गुण हैं। इतना भला आदमी कहाँ, जो यह स्वीकार करे कि मैं बुरा हूँ। जो यह सोचते हैं कि वे सब कुछ जानते हैं, वे मुझ तक आने का कष्ट न करें। जब जानते हो, तो मुझ तक आने की तकलीफ ही क्यों? जिस दिन यह अहसास हो जाए कि मैं नहीं जानता, निपट अज्ञानी हूँ, तो ही आइयेगा। घने अंधकार में ही दीप जलाने का आनंद आता है। ज्योति तभी सार्थक होती है। जलते दीपों के बीच, चार और दीये जलाकर रख दो, तो पता ही नहीं चलेगा कि कोई दीया जला है। ऐसा वे ही लोग करते हैं, जो ऋजु प्राज्ञ हैं, निर्मल हृदय हैं, सरल चित्त हैं। तर्कवादी ऐसा नहीं कर सकेंगे। पंडित ऐसा नहीं कर सकेंगे। वे ऐसा करने की कोई चेष्टा भी करेंगे, तो जरूर उसमें उनकी खोपड़ी की ही कोई-न-कोई चाल होगी। तार्किक बड़ा चतुर होता है। व्यक्ति सरल हृदय बने, सरल चित्त हो। व्यक्ति जितना सरल चित्त होगा, ज्ञान की, प्रकाश की, आनंद की, मुक्ति की, उसके लिए उतनी ही संभावना होगी। वह निर्मल आकाश में उतनी ही ऊंची उड़ान भर सकेगा। सरल हृदय तो स्वयं तीर्थ है। वह खुद ही मंदिर है, वह तो बस यों समझो मानो निर्गुणिया संत है। कोई गुण नहीं, बस यही सबसे बड़ा गुण । गुण सारे परमात्मा के, वह तो निर्गुण। परमात्मा की किरण उसी में उतरती है। ऐसी कली ही फूल बनती है। कली का धन्यभाग! अगर वह फूल बनी। मुझे ऐसी कलियों से प्यार है, जिनमें फूल होने की आकांक्षा जग गयी। वह भूख जग गई जो भोजन की तलाश को जन्म दे दे। वह प्यास की लौ सुलग उठी, जो सरोवर की तलाश शुरू करवा दे। कली फल बन सकती है। बोध हो कली होने का, प्रयास हो फूल बनने का, खिलने का, परिपूर्ण होने का। कली तो बस लगातार सूरज की ओर झांकती रहे, सूरज को निहारती रहे। सूरज के चरणों में अपना शीष धर दे, जो होना होगा, हो जाएगा। अस्तित्व को, जिस सो परम महारस चाखै/१०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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