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नहीं बल्कि व्यक्ति के सोच और विचार में निहित हैं। जब गलत सोच में मृत्यु होती है तो नरक और स्वस्थ तथा बेहतर सोच में मृत्यु होने पर उसका परिणाम स्वर्ग है। व्यक्ति के विचार ही भविष्य की आधारशिला होते हैं। .
धर्मस्थल पर जाने वाले व्यक्ति जितना समय पूजा-पाठ, सामायिकप्रार्थना में देते हैं उससे लाख गुना जरूरी है कि वे अपने विचारों को निश्छल, निष्पाप, उज्ज्वल और सरल बनाएँ। जब भी दिमाग पर ध्यान जाए तब एक बात ज़रूर अपनाते रहें। वह है पॉजीटिवनेस- अर्थात सकारात्मकता। सोच के सकारात्मक होने पर आँखें भी सकारात्मक ही देखेंगी और कानों में पड़ने वाले शब्दों का रूप भी सकारात्मक ही बनेगा। नकारात्मक सोच वाला बेहतर विचारों को सुनकर भी उसे काटना चाहेगा। एक व्यक्ति श्रोता' होता है, एक व्यक्ति सरोता' होता है। श्रोता होना सकारात्मकता है अर्थात जो सुनता है, ग्रहण करता है। नकारात्मक सोच के लोग सरोते की तरह होते हैं जिनका स्वभाव ही काटना' होता है।'
विचार आधार है। प्रेम और शांति से जीने वाले व्यक्ति हर हालत में अपने विचारों के प्रति सकारात्मक ही हुआ करते हैं। विचारों को बेहतर बनाने का तरीका भी यही है कि जब भी आप किसी से मिलें, सम्मान के साथ मिलें। और तो और, परिवार के सदस्यों के साथ भी सम्मानपूर्वक बात करें, फिर चाहे वह बेटा हो या बहू, पत्नी हो या पुत्री। यहाँ तक कि आप अपने मातहत कर्मचारियों, नौकर-नौकरानियों से भी अदब से बात करें। इंसानियत के नाते उनके प्रति सम्मान का नज़रिया रखें। आपकी सोच और वैचारिकता खुद-बखुद सकारात्मक रहेगी। प्रेम और शांति आकाश में से टपकने वाले फूल नहीं हैं। वे तो आपकी सकारात्मकता की उपज हैं। मित्र ही नहीं बल्कि दुश्मन के प्रति भी सकारात्मक विचार रखें। पता नहीं, कब कौन-सा मित्र शत्रु और शत्रु मित्र बन जाए। इस दुनिया में कब कौन किस समय काम आ जाए, ऐसी स्थिति में हम किसी को अपना दुश्मन क्यों बनाएँ ? कल को ऐसा कोई काम अटक जाए कि हमें अपने दुश्मन की ही गरज़ करनी पड़जाए अत: यही बेहतर है कि हम शुरू से ही अपना व्यवहार बेहतर रखें। कैसे करें स्वयं का प्रबंधन?
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