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वो हरि करि पिसाय पमुहे हिं ॥ उवस ग्गियतो वरिस इ, अखं जुग मुसलधाराहिं ॥ ६१ ॥ उदगं जिए नास ग्गं, पत्तंतो लहु करेइ धरणिंदो || जिण उवरि फणा बत्तं, जोगेण देहब हि परिहिं ॥ ६२ ॥ चलणाहो गुरु नालं, कमलं तो कम खामिउं नको ॥ धरणो गर्न स वासं, जिय उवसग्गं नमह पासं ॥ ६३ ॥ सिरिव यरसामि पढमा, रुहिए सेलंमि तेसिं खुमेण ॥ पढमं कयमाराहण, लोगपाला त चउरो ॥ ६४ ॥ रहरूढा पाया हिए, काउं महिमं करिंसु खुनस्स ॥ तं देवं तं तिचं रहावत्तंति तं नमिमो ॥ ६५ ॥ सिरि वयरसामिराहण, गिरिम्मि सक्को रहे अ द करिणा ॥ पायाहिणंतो सोविय रहावत्तो कुं जरावत्तो ॥ ६६ ॥ जञ्जय वऊपलाणो, चमरो वी रपयंतरि निलुको ॥ हरिणा मुक्को तत्तो, जिणपु र दंस नहं ॥ ६७ ॥ तो तहि तिचं जायं, च मरुप्पायं च सुसुमारपुरे ॥ सोमवणे तहि वीरं, ति हुण जण वच्छलं नमिमो ॥ ६८ ॥ इय बहुवि अछेरय, निहीसु अठावया गणेसु ॥ पणमह जिणवर चंदे, सुजत्तिजर नमिरमाहिंदे ॥ ६५ ॥ मासं पावगया, वग्घारिय पाणिणो जिणा वीसं
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