________________
( १७२) ॥ अथ तृतीय श्रीसंजव
जिनस्तवनं ॥ ॥राजा जो मले ॥ ए देशी ॥ संजव सुख क र त्रीजा देव, जेनीसुर नर सारे सेव, जिन वं दियें ॥ अंतरगती जिन दरसी देव जाणे जीवतणा अभिप्राय ॥ जिन ॥१॥ शिवगति स्मरण की जे नित्य, सेनासुत ध्यावो निज चित्त ॥ जि ॥ अतिशय अरजित वरजित पाप, समता गुण टाले नव ताप ॥ जि० ॥॥ नवजल तारण जुवन प्र दीप, नेहरुं रहिये नित्य समीप ॥ जि ॥ क्षमा विनय रुजुता संतोष, घारीने कीजें गुणपोष ॥ जि ॥३॥ तपसंयम सत्य शौच विशेष, अकिंच न ब्रह्मचर्य अशेष ॥ जि० ॥ पाली दश विध धर्मनो साथ, टाली कर्म तस्यो जव पाथ ॥ जि ॥४॥ पुत्र जितारि पुत्र नवांत पाम्या शिवरमणी सुख कांत ॥ जि० ॥ पुण्य पुराकृत नरजव लह, खामी जजन करी करो शुष्क ॥ जि० ॥५॥ धर्म अर्थ काम ए त्रण वर्ग,साधनथी सही अपवर्ग ॥जिना सौजाग्यचंद्र मुनीश सुशीष्य, खरूपचंड नमे जगदीश ॥ जि० ॥६॥ इति ॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org