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________________ (१३) ॥ श्रथ चतुर्थ श्रीअजिनंदन जिन स्तवनं ॥ सिद्धचक्र पद वंदोए देशी ॥ हिमवंत गिरि शिर पद्मअहथी सुरतटनी प्रगटी ॥ पूरव एक दिशि पावन करती, पूरण जल उमटी ले रे नविका जिन मुखवाणी सुणजो ॥ तमे त्रिपदीनो विस्तार गणजो रे ॥ ॥ जि० ॥१॥ ए श्रांकणी ॥ सुर नदीयें दिशि त्रण उवेखी, अजिनंदन जिन देखी ॥ त्रिगडे मध्य सिंहासन, पेखी चिहुं दिशिसरखोलेखी रे ॥ न० ॥ जि ॥२॥ कंचन तनुं हिमगिरि मन था यो, मुख पद्मग्रह जाणो ॥ चिहुँ मुखें तेह अह तट थीवाणी, गंगाप्रवाह वखाणो रे ॥०॥ जि० ॥३॥ पूर्वादिदिशि कीध पवित्र, करवा वचन विलास ॥ नयगम नंगप्रमाण सकारण हेतु थाहरण उदा स रे ॥ न ॥ जि० ॥४॥ चउगति वारण शिवसुख कारण, जाणी सुरनर तरीया ॥ जाव क होलमां स्नान रमणता, करतां नवजल तरिया, रे ॥॥ जि ॥५॥ ते जिनवाणी अमिय समाणी, परमानंद निसाणी ॥ सौजाग्य चं वचनथी जाणी, खरूपचंझें मन आणी रे ॥॥ जि० ॥६॥ इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
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