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________________ (१७४) खोल ने गोल दोय खरखा जाणे, नहिं श्रावक आचार रे ॥ प्राणी श्रावक ते नहिं कहियें ॥१॥ कल्पवृदसम जिनवर बंमी, अन्य देव धरे श्राश ॥ पंचमे अंगें जोतां तेहनो, समकीत चाल्यो ना श रे ॥ प्राणी ॥२॥ पासबा अरु निन्दव मुख थी, वाणी सुणी धरी प्यार ॥ महानिशीथें जिन वर नांख्युं, रोले अनंत संसार रे ॥ प्राण ॥३॥ जिनवर पूजा करवा आवे, विकथा मांगे चार ॥ अल्प पाप बहु निर्जरा जाणी, पाणी ढोले अपार रे ॥ प्राणी ॥ ४ ॥ जयणायें जिनपूजा करतां, ला न तणो नहिं पार ॥ अण उपयोगें अव्य क्रिया कही, जूवो अनुयोग द्वार रे ॥प्रा० ॥ ५॥ शरी रविनूषा करवा बेसे, काजल घाले आंखे ॥ पटि यां पाडेने मूब मरोडे, आरसी आगल राखे रे ॥ प्राणी ॥ ६ ॥ जिनआशातना करतां न करपे, श्रा वकनाम धराय ॥ प्रवचनसार उववाई जोतां, क र्मबंध तस थाय रे ॥ प्राणी ॥७॥ देव अव्य ल ई खाइ बेसे, जमवा नवोदधि नावे ॥ प्रश्नव्याक रण निवृत्तियें जांख्युं, बोधबीज तस जावे रे ॥ प्राणी० ॥ ७ ॥ रयणीयें जिनदर्शन वर्को. संघपट्ट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
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