SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७३ ) लो ॥ एकादशमे होय मध्यस्थ, द्वादशमे, गुण रागी प्रशस्त ॥५॥ धर्मकथावल्लज़ तेरमे, शुजपरिवा र सहित चउदमे | उत्तर कालें निज हितकार, करे काज पन्नरमे विचार ॥ ६ ॥ षोडशमे गुण दोष विशेष, जाणे निज पर समवडलेख ॥ सदा चार ज्ञानादीक वृद्ध, सत्तरमे सेवे ते सिद्ध ॥ ७ ॥ " दशमे गुणवंत महंत, तेहनो विनय करे मन खंत ॥ न विसारे कीधो उपगार श्रावकगुणगणी शमो सार ॥८॥ मननी सुह साधे परा ॥ वीश मा नो धारो ॥ धर्मकार्य करवे होय दक्ष, एकवीशमो गुण ए प्रत्यक्ष ॥ ए ॥ ए मांडेला जंग णीश विरति, श्रावक धर्मनी नहिं प्रतिपत्ति ॥ चो था च दशमा गुण विना, अंगीकस्यो पण हारे जना ॥ १० ॥ ते माटें गुण धरो, जिम श्रावक पणुं सूधुं वरो ॥ पंक्तिशांति विजयनो शिष्य, मान विजय कहे धरी जगीश ॥ ११ ॥ इति श्रावकना एकवीश गुणनी सझाय संपूर्ण ॥ ॥ अथ श्रावकने शीखामणनी सजाय ॥ ॥ जविका ! सिद्ध चक्रपद वंदो ॥ शुद्ध देवगुरु धर्मपरीक्षा, जाणे नहिंय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ए देशी ॥ गमार ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy