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लो ॥ एकादशमे होय मध्यस्थ, द्वादशमे, गुण रागी प्रशस्त ॥५॥ धर्मकथावल्लज़ तेरमे, शुजपरिवा र सहित चउदमे | उत्तर कालें निज हितकार, करे काज पन्नरमे विचार ॥ ६ ॥ षोडशमे गुण दोष विशेष, जाणे निज पर समवडलेख ॥ सदा चार ज्ञानादीक वृद्ध, सत्तरमे सेवे ते सिद्ध ॥ ७ ॥
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दशमे गुणवंत महंत, तेहनो विनय करे मन खंत ॥ न विसारे कीधो उपगार श्रावकगुणगणी शमो सार ॥८॥ मननी सुह साधे परा ॥ वीश मा नो धारो ॥ धर्मकार्य करवे होय दक्ष, एकवीशमो गुण ए प्रत्यक्ष ॥ ए ॥ ए मांडेला जंग णीश विरति, श्रावक धर्मनी नहिं प्रतिपत्ति ॥ चो था च दशमा गुण विना, अंगीकस्यो पण हारे जना ॥ १० ॥ ते माटें गुण धरो, जिम श्रावक पणुं सूधुं वरो ॥ पंक्तिशांति विजयनो शिष्य, मान विजय कहे धरी जगीश ॥ ११ ॥ इति श्रावकना एकवीश गुणनी सझाय संपूर्ण ॥
॥ अथ श्रावकने शीखामणनी सजाय ॥ ॥ जविका ! सिद्ध चक्रपद वंदो ॥ शुद्ध देवगुरु धर्मपरीक्षा, जाणे नहिंय
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ए देशी ॥ गमार ॥
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