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( १७२ ) अड अवतार ॥ रातें पंखी न खाये धान, मान स हैये नदीसे शान ॥ २१ ॥ सूर्य सरखो श्र थमे देव, मानवने खावानी देव ॥ धर्मी लोकज होये जेह, रात्री जोजन टाले तेह ॥ २२ ॥ गौत मीछाने अनुसार, ए सकाय करी श्रीकार ॥ पं मित हर्ष सार शिष्य सागर, शिवसागर कहे धर्मविचार ॥ २३ ॥ इति सजाय संपूर्ण ॥
॥ अथ श्रावकना एववीश गुणनी सझाय ॥ ॥ चोपाई ॥
॥ सरु कहे निसुणो जवि लोक, धर्म विना जव होये फोक ॥ गुण विए धर्म कि पण त था, याक विना मींडा होय यथा ॥ १ ॥ धर्मरयण ने तेहज योग, जेहने अंगें गुण आजोग ॥ श्रा वकना गुण ते एकवीश, सूत्रे जांख्या श्रीजगदी श ॥ २ ॥ पहेले गुणें बल बलियो न होय, बीजे इंद्रिय पटुता जोय ॥ त्रीजे सौम्यखनावी जाण, चोथे लोकप्रिय शुनवाण ॥ ३ ॥ चित्त संक्लेश तजे पांचमे, बहे अपजसथी वीरमे ॥ परने व चक नहिं सातमे, दाक्षिणवंत होये आठमे ॥ ४ ॥ लावंत नर नवमे कह्यो, करुणाकारि दशमें
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