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________________ (१४६ ) कुरुशुम परिघे, असिथ वखारे जाणुं जी ॥ मेरुत णा पंचासी जिनहर, इकुकारें चार वखाएं जी॥ ॥ मानुषोत्तर पर्वत तिहां चारज, नंदीसरना वी सजी ॥ कुंमल रुचक तिहां चार चार जिनहर, क षनादिक तिहां ईश जी ॥३॥ पंचसया ग्यारें अ धिका, जिनहर ती लोकें जी ॥ पडिमा एकशन सहस चारसें, बोली सघले थोकें जी ॥४॥ अधो ऊर्ध्व ने तीर्ने लोकें, सवे मली कोडी आहे जी ॥ला ख उप्पन्न ने सहस सत्ताएं, पणसय चोत्रीश पाठे जी ॥ ५॥ जिनपडिमा पन्नरसे कोडी, बहेतालीश वली कोडी जी ॥ लाख पंचावन सहस पणवीस, प सय चालीश जोडी जी ॥६॥ एता तवन नणे जे नावें, प्रहर उगमते सूरें जी ॥ वाचकमूला क हे गुण गातां, पुर्गति नासे दूरे जी ॥७॥ ॥ ढाल श्रामी॥ ॥ अहावय समेत शिखर गिरि ॥ साजिन जिय ॥ रेवतगिरि सेतुंज ॥ गजपद धम्मचक्क कहुँ । सा ॥ वैजारगिरि उत्तंग ॥१॥रावते कुंजरावते ॥ सा ॥ तिहुअणगिरि ग्वालेर ॥ काशी अवंती जाणीयें ॥ सा ॥ नागोर जेसलमेर ॥२॥ सोरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
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