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________________ (१५३) श्रुतसारना, अविनाशी उपयोग ॥ सु॥ध० ॥ ५॥ अव्य नाव आश्रव मल टालता, पालता संय म सार ॥ सु० ॥ साची जैन क्रिया संजालता, गाल ता कर्म विकार ॥ सु० ॥ धम् ॥६॥ सामायिक श्रादिक गुणश्रेणिमें, रमता चढते रे जाव ॥सु॥ तीन लोकथी जिन्न त्रिलोकमें, पूजनीय जसुपाव ॥ सु० ॥ धम् ॥ ७ ॥ अधिकगुणी निजतुल्य गुणी थकी, मलता ते मुनिराज ॥ सु० ॥ परम समाधि निधि जवजलधिना, तारण तरण जहाज ॥ सु० ॥ ध० ॥॥ समकितवंत संयमगुण ईहता, ते धर वा समरन ॥ सु० ॥ संवेगपदीनावें शोजता, कहे ता साचो रे अर्थ ॥ सु ॥ ध० ॥ ए ॥ आप प्रशं सायें नवि माचता, राचतामुनिगुणरंग ॥ सु० ॥श्र प्रमत्त मुनि श्रुततत्त्व पूढवा, सेवे जासु अनंग ॥ सु०॥ ध० ॥१०॥ सदहणा आगम अनुमोदता, गुण कर संयम चाल ॥सु॥ व्यवहारे साची ते साचवे, श्रायति लान संजाल ॥ सु० ॥ ध० ॥ ११ ॥ मुक्कर कारीश्री अधिका कहे, बृहत्कल्प व्यवहार ॥सु॥ उपदेशमाला जगवई अंगने, गीतारथ अधिकार ॥ सु० ॥ ध० ॥ १२ ॥ नावचरण स्थानक फरस्या वि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
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