________________
(११) उत्सर्गनी, दृष्टि न चूके जेह ॥ स० ॥ प्रणमे नित्य प्रत्ये जावद्यु, देवचंद मुनि तेह ॥साव॥११॥७॥ ॥ अथाष्टम कायगुप्ति सद्याय ॥
॥प्रारंजः॥ ॥ फुलना चोसर प्रजुजीने शिर चढे ॥ ए देशी॥ गुप्ति संचारो रेत्रीजी मुनिवरु, जेहथी परम आनंदो जी ॥ मोह टले घनघाती परगले, प्रगटे ज्ञान अमं दो जी ॥गु०॥१॥ करिय शुज अशुन नव जे जे , तिण तजी तन व्यापारो जी॥ चंचलनाव ते आ श्रवमूल , जीव अचल अविकारो जी ॥ गु० ॥२॥ इंघिय विषय सकलनुं द्वार ए, बंध हेतु दृढ ए हो जी ॥ अनिनव कर्म ग्रहे तनुयोगथी, तिण थिर करिये देहो जी ॥ गु० ॥ ३ ॥ श्रातमवीर्य फुरे परसंग जे, ते कहियें तनुयोगो जी ॥ चेतन सत्ता रे परम अयोगी बे, निर्मल स्थिर उपयोगोजी ॥ गु० ॥ ४ ॥ जावत् कंपन तावत् बंध , नां ख्युं जगवर अंगें जी ॥ ते माटें ध्रुव तत्त्वरसें रमे, मादण ध्यानप्रसंगें जी ॥ गु० ॥५॥ वीर्यसहायी रे बातम धर्मनो, अचल सहज अप्रयासो जी ॥ ते परनाव सहाया किम करे, मुनिवर गुणश्रावासो
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org