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( १९३) तेह ॥ तिण परसन मुख नवि करे जी, श्रातमरति वती जेह ॥ म ॥ स ॥२॥ काययोग पुजल महे जी, एह न आतम धर्म ॥ जाणंग करता जो गता जी, हुं महारो ए मर्म ॥ म०॥ स० ॥३॥ अननिसंधि चलवीर्यनो जी, रोधकशक्ति अनाव ॥ पण अनिसंधि जे वीर्यथी जी, केम ग्रहे परजाव ॥ म ॥ स० ॥४॥श्म परत्यागी संवरी जी, न ग्रहे पुजल खंध ॥ साधक कारण राखवा जी, अश नादिक संबंध ॥ म ॥ स ॥५॥ श्रातमत त्व अनंतता जी, ज्ञान विना न जणाय ॥ तेह प्र गट करवा नणी जी, श्रुत सद्याय उपाय ॥ म॥ स० ॥ ६ ॥ तेह देहथी देहराह जी, श्राहारें बल वान ॥ साध्य अधूरे हेतुनें जी, केम तजे गुणवान ॥ म ॥ स ॥७॥ तनुअनुयायी वीर्यनो जी, व तन अशन संजोग ॥ वृष्यष्टि सम जाणिने जी, अशनादिक उपजोग ॥ म० ॥ स ॥ ॥ ज्यां साधकता नवि अडे जी, तो न ग्रहे थाहार ॥ बाधक परिणति वारवा जी, अशनादिक उपचार ॥ म॥ स० ॥ ए ॥ सुडतालीशे अव्यना जी, दोष तजीनी राग ॥ असंज्रांत मूळ विना जी, ब्रम परें वड ना
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