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________________ (१११) मुनि वंदतां जी, लहियें जवजल तीर ॥ मु०॥ ई० ॥ ११ ॥ इति ॥ ॥अथ द्वितीय भाषासमिति सद्याय प्रारंजः॥ ॥ नावनामालती चूशीयें ॥ ए देशी ॥ साधुजी समिति बीजी आदरो, वचन निर्दोष परकाश रे ॥ गुप्ति उत्सर्गनो समिति ते, मार्ग अपवाद सुवि लास रे ॥ सा ॥ ए आंकणी ॥१॥ नावना बीजी महाव्रत तणी, जिनमणी सत्यता मूल रे॥जेदथीय हिंसकता वधे, सर्वसंवर अनुकूल रे ॥ सा ॥२॥ मौनधारी मुनि नवि वहे, वचन जे आश्रवगेह रे ॥ आचरण ज्ञानने ध्याननो, साधक उपदिसे तेह रे ॥ सा ॥३॥ उदित पर्याप्ति जे वचननी, ते करी श्रुत अनुसार रे ॥ बोध प्रागनाव स द्यायथी, वलि करे जगत उपकार रे ॥ सा ॥ ४॥ साधु निजवीर्यथी परतणो, नवि करे ग्रहण ने त्याग रे ॥ ते नणी वचनगुप्ति रहे, एक उत्स र्ग मुनिमार्ग रे ॥ सा ॥ ५॥ योग जे आश्र व पद हतो, ते कस्यो निर्जरारूप रे ॥ लोहथी के चन मुनि करे, साधता साध्य चिप रे ॥ सा ॥ ६॥ यात्महित पर हित कारणे, आदरे पांच स For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
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