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(१०५) मुनिवर गुप्ति धरंत ॥ यदि गुप्ति जो न रही श के, तो समिति विचरंत ॥४॥ गुप्ति एक संवरम यी, श्रौढरंगिक परिणाम ॥संवर निर्जर समितिथी, अपवादें गुणधाम ॥ ५॥ अव्ये अव्यत चरणता, जावें नाव चरित्त ॥ जावदृष्टि अव्यत क्रिया, कर तां शिव संपत्त ॥६॥ आतमगुण प्राग्नावथी, जे साधक परिणाम ॥ समिति गुप्ति ते जिन कहे, साध्य सिकि शिवगम ॥७॥ निश्चय करण रु चि थर, समिति गुप्ति धर साधि ॥ परम अहिं सक नावथी, आराधे निरुपाधि ॥ ७ ॥ परम म होदय साधवा, जेह थया उजमाल ॥ श्रमण नि तु माहण यति, गाऊं तस गुणमाल ॥ ए॥
॥अथ प्रथम र्यासमिति सद्याय प्रारंजः॥
॥प्रथम गोवाला तणे नवें जी ॥ ए देशी ॥ प्रथम अहिंसक व्रत तणी जी, उत्तम नावना एह ॥ संवर कारण उपदिशी जी, समतारसगुण गेह ॥ मुनीश्वर, र्यासमिति संजार ॥ श्राश्रव कर तनुयोगथी जी, पुष्टचपलता वार ॥ मु०॥ ६० ॥ ए श्रांकणी ॥ १॥ कायगुप्ति उत्सर्गनो जी, प्रथ म समिति अपवाद ॥ O ते जे चालवू जी, धरि
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