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________________ यह सुरत-रात्रि अनिवार्य है। इसमें आये बिना, तुम्हारे शाश्वत सूर्य को यहाँ कोई न पहचान सकेगा ! "ओह, मेरी धमनियों में ये कैसे गरजते सागर के मृदंग बज रहे हैं। मेरे उरु-मण्डल में ये कैसे पीले, नीले घनश्याम पुष्करावर्त मेघ उमड़े आ रहे हैं। आवर्तक मेघों में बड़े-बड़े भँवर पड़ रहे हैं। संवर्त मेघों में जल-संचय हो रहा है। पुष्कर मेघों में भीतर-ही-भीतर चित्र-विचित्र वृष्टि हो रही है। और मेरे उरुमूल के कदली-गर्भ में द्रोण-मेघ का कादम्ब उमड़ रहा है। मेरे अंगांग में यह कैसी सभर आर्द्रा व्याप गयी है। मेरी नाड़ियों में विद्युल्लताएँ बह रही हैं । आह, असह्य है अनबरसे मेघों का यह वर्षणाकुल अन्तर्घनत्व । हाय, अकाल ही ये कैसे मेघ घिर आये हैं। ये मेरे उरुप्रदेश में घनीभूत हो कर घहरा रहे हैं। मेरे कोई मांसल उरु नहीं रहे, कोई जघन नहीं रहे, वहाँ केवल घनीभूत, गहराती मेघराशि है। किसके वृष से उमड़ रहे हैंमेरी जंघाओं में अनहद नाद करते ये मेघ । मेरी धमनियों में रक्त नहीं, वृष और सोम के आलोड़न गरज रहे हैं। रज और वीर्य की ग्रंथियों में तुमुल और अस्खलित घर्षण की आद्या अग्नि लहरा रही है। मेरे अणु-अणु में यह कैसी परात्पर वासना दहक उठी है। लगता है, सारी जड़-जंगम प्रकृति इस क्षण चैतन्य हो उठी है। कौन अन्तःसार वृष्णीक पुरुष, विराट की अदृश्य दूरियों में चला आ रहा है ? मेरे रोमों में कदम्ब और केतकी के वन पुष्पित, पुलकाकुल हो कर काँटों की तरह कसक रहे हैं। ओ वृष्णीन्द्र, तुम असम्प्रज्ञात दूरियों में जाने कब से चले आ रहे हो। पास क्यों नहीं आते? असह्य है तुम्हारी यह इन्द्र-खेला, ओ मेरे अनंग ! तुम्हारे चरण-चापों से मेरे अस्थि-बन्ध टूट रहे हैं। मेरे नाड़ीचक्र झिल्लिम पाँखुरियों की तरह काँप रहे हैं। मेरा आभोग विदीर्ण हो रहा है। किस अदृश्य पदांगुष्ठ ने मेरा अजेय नीवीबन्ध छिन्न कर दिया ? किसके कटाक्ष ने मेरी सर्प-कंचुकी के बन्द तोड़ दिये ? मैं रह गई हूँ केवल जल-वसना इरावती । अवसना, अनग्ना, द्यावा की पुत्री : अदिति । दिक्चक्रवाल पर छतपटाती एक नग्न नारी! मेरी देह, मेरी इन्द्रियों की तन्मात्रा भर रह गयी है। मेरी इन्द्रियाँ, मेरे प्राण में लय पा कर, निरी साँस हो रही हैं। मेरा काँपता प्राण मनोलीन हो कर, मेरे हृदय के पद्म-कोरक में कुम्भित हो गया है। और मेरा हृदय फटा जा रहा है। ओ मेरे एकमेव विषय, मेरी सारी इन्द्रियों की इन्द्र-शक्ति तुम में एकत्रित हो गई है। मेरी देह के किनारे टूटे जा रहे हैं। यह कैसी घनघोर जल-जलान्त बादल-बेला है। पपीहे की पुकार में, चक्रवाक् मिथुन की बिछुड़नभरी चीत्कार में, यह विरह-रात्रि अन्तहीन हो उठी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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